डोनाल्ड ट्रंप से ठीक पहले जिस अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यकाल सिर्फ चार साल के लिए रहा था उसका नाम जॉर्ज एचडब्लु बुश था। बुश सीनियर ने उप राष्ट्रपति रहते 1988 में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था और जनवरी 1989 में अमेरिका के 41वें राष्ट्रपति बने थे। रिपब्लिकन पार्टी के न्यू ऑरलियंस में हुए नॉमिनेशन कन्वेंशन में बुश ने यह मशहूर नारा दिया था- रीड माई लिप्स, नो न्यू टैक्सेज! मशहूर लेखिका मारग्रेट एलेन नूनन ने यह लाइन लिखी थी। इस नारे ने उनको चुनाव जीतने में मदद की थी। राष्ट्रपति बनने के बाद कई कारणों से वे अपना मशहूर वादा नहीं निभा सके और अंतत: उनका कार्यकाल भारीभरकम टैक्स के साथ पूरा हुआ। तभी 1992 के चुनाव में उनके मुकाबले में उतरे डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बिल क्लिंटन के चुनाव रणनीतिकार जेस कार्वाईल ने नारा बनाया था- इट्स द इकोनॉमी स्टूपिड! क्लिंटन की टीम ने पूरा प्रचार इसी थीम पर किया और एक कार्यकाल के बाद ही बुश की विदाई हो गई, इस तथ्य के बावजूद कि उनके कार्यकाल में अमेरिका का चिर प्रतिद्वंद्वी सोवियत संघ 18 टुकड़ों में बिखर गया था, शीत युद्ध की समाप्ति हुई थी, जर्मनी का एकीकरण हुआ था और अमेरिका ने खाड़ी की लड़ाई में शानदार जीत हासिल की थी। अमेरिकियों को गर्व से भर देने वाली तमाम उपलब्धियों के बावजूद जॉर्ज बुश सीनियर एक ही कार्यकाल के बाद चुनाव हार गए थे।
इसे याद दिलाने का मकसद यह है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर जब अपना प्रचार शुरू किया था तो उनका नारा था ‘बहुत हुई महंगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार’, ‘बहुत हुई पेट्रोल-डीजल की मार, अबकी मार मोदी सरकार’ प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने नारा दिया ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’। उनके शासन के करीब सात साल के बाद देश की क्या स्थिति है? महंगाई चरम पर है, पेट्रोल-डीजल की कीमत इतिहास के सबसे उच्च स्तर पर है और भ्रष्टाचार के मामले में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों के मुताबिक भारत की स्थिति मनमोहन सिंह की सरकार से भी गई गुजरी है। एशिया में तो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार ही भारत में है। बुश के साथ दूसरी समानता यह है कि बुश की ही तरह मोदी के कार्यकाल में लंबे समय से लंबित भावनात्मक मुद्दों का समाधान हुआ। जमू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला हुआ और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हुआ। तभी सवाल है कि जब सोवियत संघ के बिखरने, शीत युद्ध खत्म होने, जर्मनी के एकीकरण और इराक युद्ध जीतने के बावजूद जॉर्ज बुश सीनियर को आर्थिक मुद्दों के आधार पर बिल क्लिंटन ने चुनाव हरा दिया तो भारत में विपक्षी पार्टी क्यों नहीं आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके देश को जागरूक कर रही है? क्यों नहीं कोई नया सामाजिक विमर्श खड़ा कर पा रही है?
पहले कई बार जानकार लोगों ने लिखा है और सवाल किया है कि ब्रिटेन में जिस तरह से टोनी ब्लेयर ने न्यू लेबर का सिद्धांत दिया और लेबर पार्टी को रिइन्वेंट करके मारग्रेट थैचर और जॉन मेजर के लगातार शासन से स्थापित हुई कन्जरवेटिव पार्टी को सत्ता से हटा दिया, वैसा कुछ कांग्रेस क्यों नहीं कर पा रही है? उसी कड़ी में यह बात भी है कि अमेरिकियों को गर्व से भर देने वाली तमाम उपलब्धियों के बावजूद बिल क्लिंटन ने आर्थिकी के मुद्दे पर जॉर्ज बुश को चुनाव हरा दिया था। भारत में भी बहुसंयक हिंदुओं को गर्व से भर देने वाली कथित उपलब्धियों के बावजूद सरकार को अनेक मुद्दों पर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। यह सही है कि अमेरिका के मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था बहुत छोटी है पर यह भी हकीकत है कि अमेरिका के मुकाबले भारत की आबादी चार गुने से भी ज्यादा है। यहां ज्यादा लोग आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। ज्यादा लोग सामाजिक त्रासदी झेल रहे हैं। ज्यादा लोग आर्थिक विषमता का शिकार हैं। इसके बावजूद हैरानी की बात है कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी नया विमर्श खड़ा करने की बजाय भाजपा का ब्लोन बनने की होड़ में लगी है। भाजपा की नकल करके या उसके एजेंडे की कॉपी करके कांग्रेस न तो संगठन के तौर पर मजबूत हो सकती है और न चुनाव जीत सकती है।
भाजपा की तरह का एजेंडा उसे आम भारतीय मानस में नए तरह से स्थापित नहीं कर सकता है। भले भारत में गरीबी और अशिक्षा बहुत है पर विचारों में मौलिकता और नवीनता लोगों को आकर्षित करती है। कोई नई चीज, कोई नया एजेंडा, कोई नया विमर्श ही लोगों को कांग्रेस के साथ वापस जोड़ सकता है। लेकिन इसकी बजाय कांग्रेस बढ़-चढ़ कर भाजपा के एजेंडे को अपना रही है। जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार हर कानून लागू करने के बाद कहती है कि इसे कांग्रेस पार्टी लागू करना चाहती थी वैसे ही कांग्रेस भाजपा के बनाए रास्ते पर चलना चाहती है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में गाय बचाओ आंदोलन शुरू किया है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखी। उसके बाद प्रदेश कांग्रेस ने इसका अभियान शुरू किया, जिसमें प्रियंका भी शामिल हुईं। इसमें कुछ बुराई नहीं है पर अगर कांग्रेस पार्टी यह काम पहले से कर रही होती तो इसे सहज रूप में लिया जाता। लेकिन जब देश में गौरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग शुरू हुई और कई जगह दलितों व मुस्लिमों के साथ मार-पीट क्या हत्या कर दिए जाने की घटनाएं हुईं तब कांग्रेस ने गाय बचाने का आंदोलन शुरू किया है, जिसका उलटा असर होगा। कांग्रेस के इस अभियान से गाय को माता और पूजनीय मानने वाला समुदाय तो खुश नहीं ही होगा उलटे गौरक्षा के नाम पर हिंसा का शिकार हुए लोग अलग भड़केंगे।
इसी तरह राजस्थान में कांग्रेस की युवा ईकाई के सदस्यों ने राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा करने का ऐलान किया। राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा इकट्ठा करने का काम विश्व हिंदू परिषद का है। भाजपा के लोग जरूर इस काम में उसकी मदद कर रहे हैं लेकिन एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस चंदा इकट्ठा करे यह समझ में नहीं आने वाली बात है। निजी तौर पर कांग्रेस का कोई नेता चंदा देना चाहे तो यह उसकी आस्था है, जैसे दिग्विजय सिंह ने राम मंदिर के लिए चंदा भेजा। एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस यह काम क्यों करेगी? गौरक्षा की तरह अगर यह काम भी कांग्रेस पहले से कर रही होती तो बात समझ में आती। पर पहले तो कांग्रेस मंदिर आंदोलन का विरोध करती रही, बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराए जाने को राष्ट्रीय शर्म कहा, भाजपा नेताओं पर कार्रवाई की मांग की और अब वहां मंदिर निर्माण के लिए चंदा इकट्ठा कर रही है! क्या इस तरह नई कांग्रेस बनेगी? क्या इस तरह के एजेंडे से कांग्रेस पार्टी सोच रही है कि वह भाजपा का विकल्प बनेगी?
क्या ऐसे ही एजेंडे के भरोसे कांग्रेस अगले चुनाव में भाजपा को रोकने का मंसूबा बना रही है? अगर ऐसा है तो कांग्रेस नेता मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। भाजपा के एजेंडे की कॉपी करके या उसका ब्लोन बन कर कांग्रेस उसे टक्कर नहीं दे सकती है। कांग्रेस को नए आइडियाज खोजने होंगे, नए विचार लोगों के सामने रखने होंगे, नया विमर्श खड़ा करना होगा। अगर कांग्रेस के नेता सिर्फ अपनी पार्टी के इतिहास के पन्ने पलटें तो इसका संकेत मिल जाएगा कि उन्हें क्या करना चाहिए! कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई के समय हिंदू-मुस्लिम दोनों सांप्रदायिक ताकतों के विभाजनकारी एजेंडे के बरक्स सामाजिक सुधार का अपना एजेंडा पेश किया था। धार्मिक कुरीतियों और सामाजिक बुराईयों को खत्म करने की पहल की थी। समावेशी आर्थिक एजेंडा तैयार किया था। आज भी उसी की जरूरत है। कांग्रेस का नेतृत्व कौन करे यह प्राथमिकता नहीं है क्योंकि करिश्माई नेतृत्व का समय अब चला गया है, असली सवाल है कि कांग्रेस का एजेंडा क्या हो!
अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)