नई शिक्षा नीति से भी आस कम

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नई शिक्षा नीति 2020 में उच्च शिक्षा आयोग के तहत बनाए गए नियंत्रण, मानक, वित्त पोषण और एक्रीडिएशन से जुड़े चार स्वतंत्र ढांचों को शिक्षा में निवेश के तौर पर देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि इस ढांचागत बदलाव से सांस्कृतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक और आर्थिक तौर पर नई दिशा मिलेगी। इसी के तहत राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नाक) और द नेशनल इंस्टिट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (निर्फ) द्वारा विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों का एक्रीडिएशन किया जा रहा है, जिसके वास्तविक परिणाम के रूप में आगामी वर्षों में बड़ी संख्या में कॉलेज बंद होने जा रहे हैं। नई शिक्षा नीति में कई नए लक्ष्य रखे गए हैं जैसे विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में बढ़ावा देना, निजी विश्विद्यालयों को सरकारी विश्विद्यालयों के समक्ष स्थापित करना, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और ऑल इंडिया टेक्निकल एजुकेशन को विघटित करना, चार साल का मल्टी डिसिप्लिनरी अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम, मल्टीपल एग्जिट और एंट्री तथा एमफिल प्रोग्राम को बंद करना। ये बातें सुनने में अच्छी लग सकती हैं पर क्रियान्वयन कठिन है, क्योंकि भारत में लगभग 800 विश्वविद्यालय और 40000 महाविद्यालय हैं।

इसमें से लगभग 16000 महाविद्यालय सिर्फ एक ही प्रोग्राम चला रहे हैं, और मात्र 8000 महाविद्यालय ही ऐसे हैं जिनमें लगभग 3000 से अधिक छात्र पंजीकृत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ग्रेडेड ऑटोनॉमी, ऑटोनोमस कॉलेज और बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को बड़े सुधार के रूप में देखा जा रहा है। इसमें लैंगिक सहभागिता और पिछड़े क्षेत्रों के लिए स्पेशल एजुकेशनल जोन की बातें सराहनीय हैं, पर इसमें भी क्रियान्वयन के सुझाव का अभाव है। नई नीति से सबसे ज्यादा हानि एसटी, एससी, ओबीसी और वंचित समाज के छात्रों की होगी। जो आरक्षण नीति 5 अप्रैल 2006 को विश्वविद्यालयों में लागू हुई थी, वह अब निजी विश्विद्यालयों की स्थापना के कारण बुरी तरह प्रभावित होगी। वहीं शिक्षक नियुक्ति की प्रक्रिया में विश्वविद्यालय अभी भी ओबीसी आरक्षण नीति के अनुसार नियुक्तियां नहीं कर पाए हैं। अभी तक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सिर्फ नौ ओबीसी प्रोफेसर हैं जबकि प्रोफेसर के 313 पद आवंटित हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अभी तक एक भी प्रोफेसर ओबीसी कोटा के अंतर्गत नियुक्त नहीं हो सके हैं। वहीं सेंट्रल यूनिवर्सिटीज में एसोसिएट प्रोफेसर मात्र 38 हैं, जबकि 737 पद आवंटित हैं। सहायक प्रोफेसर के पद पर भी आरक्षण का 200 पॉइंट रोस्टर फॉर्मूला अपना चक्र पूरा नहीं कर पाया है।

ऐसी स्थिति में नई शिक्षा नीति के कारण शिक्षकों का कार्यभार बहुत प्रभावित होगा, क्योंकि छात्रों के लिए लचीले विकल्प के साथ-साथ विभिन्न स्तर पर एंट्री और एग्जिट के प्रावधान किए गए हैं, जहां अंक के आधार पर वे कोर्स क्या कॉलेज बदल सकते हैं । दूसरी तरफ अस्थायी वर्कलोड पर स्थायी नियुक्तियां नहीं की जा सकतीं, जिसके कारण संविदा नियुक्तियों को काफी बढ़ावा मिलेगा। यह एक विचलित करने वाली स्थिति है। इसके बावजूद 2032 तक सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को एक्रीडेटेड करना है ताकि वे डिप्लोमा क्या डिग्री दे सकें। वहीं 2032 तक सभी एफलिएटेड कॉलेज, जो सिंगल प्रोग्राम चला रहे हैं, उनके भी विलय की योजना है। यह एक विरोधाभास है, क्योंकि ज्यादातर विश्वविद्यालय और कॉलेज राज्य के अधीन ही आते हैं। विभिन्न प्रदेशों में कॉलेज दूरदराज के इलाके में होते हैं, वहां सिंगल प्रोग्राम और तीन हजार से कम छात्र होते हैं।

वहां उनका विलय करना वहां के छात्रों के लिए अभिशाप होगा, क्योंकि कॉलेज की तलाश में इन छात्रों को शिक्षा के लिए शहरों की तरफ जाना पड़ेगा, जिसके कारण छात्रों और उनके अभिभावकों को मानसिक और आर्थिक प्रताडऩा झेलनी होगी। बालिकाओं के लिए तो यह नीति और भी बदतर साबित होने वाली है। ऐसी परिस्थितियों में एक्रिडिएशन एक छलावा सा लग रहा है, जहां छात्रों को उपभोक्ता मानकर सरकार बड़े पूंजीपतियों को आमंत्रित कर रही है। भारत में गहरी सामाजिक आर्थिक असमानता होने के कारण यह शिक्षा नीति शिक्षा के प्रजातांत्रिकरण की प्रक्रिया में रुकावट बन सकती है। ऐसे में जरूरी है कि सभी हितधारकों के साथ तालमेल बैठाकर नई शिक्षा नीति 2020 को पूरी संवेदनशीलता के साथ क्रियान्वित किया जाए, ताकि संभावित नुकसानों को कम करते हुए कतार में खड़े आखिरी विद्यार्थी तक शिक्षा का प्रकाश पहुंचाया जा सके।

सुबोध कुमार
(लेखक शिक्षाविद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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