तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन को तीन महीने हो चुके हैं। इसमें छह मुख्य तथ्य हैं, जो यहां दिए जा रहे हैं:
1. ये कृषि कानून किसानों और भारत के लिए कुल मिलाकर अच्छे हैं। समय-समय पर अधिकतर राजनीतिक दल और नेता ये बदलाव चाहते रहे हैं। आपमें से कई लोग इससे अभी भी असहमत हो सकते हैं।
2. अब इसके कोई मायने नहीं हैं कि ये कानून किसानों के लिए अच्छे हैं या बुरे। मायने यह रखता है कि लोकतंत्र में किसी नीतिगत परिवर्तन से प्रभावित होने वाले लोग (यहां उत्तर भारत के किसान) उसके बारे में क्या सोचते हैं।
3. मोदी सरकार का कहना सही है कि मामला अब कृषि कानूनों का नहीं है क्योंकि कोई भी MSP, सब्सिडी और मंडी की बात नहीं कर रहा। फिर मामला क्या है?
4. संक्षेप जवाब है कि यह राजनीति के बारे में है, और क्यों न हो? जब यूपीए सत्ता में था, भाजपा उसके भारत-अमेरिका परमाणु संधि से लेकर बीमा क्षेत्र में FDI तक, सभी अच्छे विचारों की विरोधी थी। आज वही भाजपा उन नीतियों को 6 गुना गति से लागू कर रही है।
5. कृषि कानूनों की जंग मोदी सरकार हार चुकी है।
6. मोदी सरकार के पास दो विकल्प हैं। वह इसे एक बड़ी राजनीतिक जंग में बदल सकती है या पीछे हट सकती है।
मोदी सरकार कृषि कानूनों पर जंग हार चुकी है, इसका पहला सबूत यह है कि उसने इन कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित रखने की एकतरफा पेशकश की। आज से 18 महीने गिनिए तो 2024 के आम चुनाव के लिए 18 महीने शेष रह जाते हैं। मोदी-शाह उस समय इस मोर्चे को नहीं खोलना चाहेंगे।
वास्तव में, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे अहम राज्यों के चुनाव के लिए भी 12 महीने रह जाएंगे। अब सरकार के सामने चुनौती यह है कि हारते न दिखते हुए वह सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए क्या कीमत अदा करे। सरकार अगर हथियार डाल देती है तो यह विवाद बंद हो सकता है, लेकिन तब राजनीति गरम हो जाएगी। नए श्रम कानूनों जैसे दूसरे सुधार निशाने पर होंगे।
मेरे हिसाब से सरकार को इस हालत में लाने वाली 5 बड़ी गलतियां ये हैं:
1. इन कृषि कानूनों को अध्यादेश के जरिए लाना बड़ी भूल थी। पहले लोगों को राजी करना सही रास्ता होता।
2. इन कानूनों को राज्यसभा में जिस तरह जल्दबाज़ी में बढ़ाया गया उससे शक गहरा हो गया। इसके लिए कुशल संसदीय कौशल की जरूरत थी। इसने यह ‘हवा’ बनाने का काम किया कि किसानों पर जबरन कुछ लाद रहे हैं।
3. सत्ताधारी पार्टी बहुमत के बूते इतनी ऊंची उड़ान भरने लगी कि उसने सहयोगियों की परवाह करना छोड़ दिया।
4. वह मोदी-शाह की सियासत के कारण कमजोर पड़े हरियाणा और पश्चिमी यूपी के जाटों की हताशा का अंदाजा नहीं लगा पाई। हरियाणा में भाजपा के पास गिनती के लायक जाट नेता नहीं है। जरा पूछिए कि भाजपा के जाट सहयोगी दुष्यंत चौटाला या यूपी का कोई जाट नेता, लोगों के बीच जाकर इन कानूनों की मार्केटिंग क्यों नहीं कर रहा? उनकी हिम्मत नहीं है।
5. भाजपा ने वार्ताओं में बहुत कुछ एकतरफा मान लिया। अब और मानना पड़ेगा। किसान नेता भी पीछे नहीं हटे हैं।
अब सवाल यह है कि वह आगे क्या करेगी? एक तरीका यह हो सकता है कि किसानों को थका दिया जाए। फिलहाल ऐसा होने की उम्मीद नहीं है। रबी फसल की कटाई अप्रैल में होगी यानी अभी 75 दिन बाकी हैं।
दूसरी संभावना यह है कि जाट आखिरकार कोई समझौता कर लें। यह मुमकिन है। सिंघु बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर में फर्क पर गौर कीजिए। सिंघु बॉर्डर पर कोई राजनेता सेल्फी खींचने भी नहीं जा सकता। लेकिन गाजीपुर बॉर्डर पर कोई भी जा सकता है। जहां भी राजनीति है, नेता वहां मौजूद हैं। टकराव सुलझ सकता है, लेकिन यह सच में हो गया तब क्या होगा?
तब, भारत और मोदी सरकार के लिए सबसे खतरनाक स्थिति बन जाएगी। पंजाब के सिखों को अलग-थलग कर सकते हैं। इसके संकेत मिल भी रहे हैं। कुछ बड़े लोग कृषि कानूनों को राष्ट्रीय एकता के सवाल से जोड़कर जैसे ट्वीट कर रहे हैं और उन पर सरकार की जो अनमनी प्रतिक्रिया आ रही है वे यही संकेत दे रहे हैं।
किसान आंदोलन की सुर्खियों को सिख अलगाववाद की सुर्खियों में बदलने की कोशिश मोदी सरकार की गंभीर भूल साबित हो सकती है। भारतीय राजनीति की हकीकतों और संसदीय बहुमत की सीमाओं को समझने की अक्षमता ने ही इस पार्टी आज इस स्थिति में पहुंचाया है।
क्या उसमें इस स्थिति से बाहर निकल पाने की बुद्धिमानी और उदारता है? पता नहीं, लेकिन उम्मीद है कि उसमें यह सब होगा। क्योंकि आज भारत को राष्ट्रीय एकता के नाम पर कोई और लड़ाई कतई नहीं चाहिए। आप इतने नादान तो नहीं ही होंगे कि पंजाब में जिस प्रेत को हमने 1993 में ही शांत कर दिया था उसे फिर जगाने की कोशिश करेंगे।
शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)