म्यांमार तख्तापलट पर भारत की तटस्थता ठीक नहीं

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भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में फौजी तख्तापलट हो गया। उसके राष्ट्रपति विन मिंत और सर्वोच्च नेता आंग सान सू की को नजरबंद कर दिया गया है। कहीं फौजी तख्तापलट हो और वहां खून की एक बूंद भी न गिरे, इसका अर्थ क्या है? दरअसल, म्यांमार में फौज पहले ही सत्ता के तख्त को अपने कंधों पर उठाए रखे थी। उसने कंधे हिलाए और सरकार गिर गई।

2008 में फौज ने म्यांमार का संविधान बनाया और उसमें ऐसे तीन प्रावधान कर दिए कि कोई कितनी ही लोकप्रिय सरकार यांगोन (रंगून) में बन जाए, लेकिन फौज की बैसाखी के बिना वह चल ही नहीं सकती थी।फौज को पता था कि सू की अत्यंत लोकप्रिय नेता हैं। उन्हें लगभग 20 साल जेल में बंद रखा गया था।

फौज को डर था कि यदि उनको लंबी नजरबंदी के बाद रिहा किया गया, तो वे सरकार बना लेंगी और चुनावों में फौज के समर्थकों का सूपड़ा साफ हो जाएगा। इसीलिए उन्होंने संविधान में ऐसा प्रावधान कर दिया कि सू की प्रधानमंत्री ही न बन सकें। सू की के पति लंदन के अंग्रेज थे। विदेशी पति, पत्नी या बच्चे वाला व्यक्ति सर्वोच्च पद पर नहीं बैठ सकता, इस प्रावधान के कारण 2015 का चुनाव जीतने के बावजूद ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ की नेता सू की राष्ट्रपति नहीं बन सकीं।

संविधान में दूसरा प्रावधान यह था कि संसद के 25% सदस्य फौज द्वारा नामजद होंगे ताकि कोई सत्तारुढ़ पार्टी फौज की मर्जी के बिना संविधान संशोधन न कर सके। तीसरा प्रावधान यह था कि गृह, रक्षा और सीमा ये तीन मंत्रालय फौज के पास रहेंगे। फौज के इस कड़े शिकंजे के बावजूद 2015 के चुनाव में सू की की पार्टी एनएलडी ने बहुमत की सरकार बना ली। अब नवंबर 2020 के चुनाव में भी उसने 440 में से 315 सीटें जीत लीं।

फौज और उसकी पाली हुई पार्टी ‘यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ हाथ मलते रह गए। एक फरवरी 2021 को यह नई संसद शपथ लेने वाली थी, लेकिन सुबह-सुबह फौज ने तख्तापलट कर दिया और एक साल के लिए सरकार अपने हाथ में लेने की घोषणा कर दी। उसने आरोप लगाया है कि गत चुनाव में धांधली हुई है। फौज के इस आरोप को म्यांमार चुनाव आयोग ने सिरे से रद्द कर दिया है।

सवाल यह है कि फौज के इस तख्तापलट के पीछे असली कारण क्या है? पहला कारण तो यह है कि सू की की सरकार और फौज के बीच लगातार भयंकर तनाव रहा है। फौज को डर था कि प्रचंड बहुमत पाने के बाद सू की संविधान बदल देंगी और फौज निस्तेज हो जाएगी। दूसरा, फौज की शंका इसलिए भी बढ़ी कि जो म्यांमार-फौज चीन के साथ गठजोड़ के आधार पर इतरा रही थी, उसने महसूस किया कि सू की भी अब चीन के साथ पींगे बढ़ा रही हैं ताकि वह फौज को कोने में सरका सके।

तीसरा, रोहिंग्या मुसलमानों को मार भगाने वाली फौज के लिए यह बड़ा धक्का था कि सू की ने रोहिंग्या मुसलमानों की पिटाई का जमकर समर्थन करके अपने आपको म्यांमार की जनता में फौज से भी अधिक शक्तिशाली बना लिया था। चौथा कारण यह दिखता है कि म्यांमार फौज के वर्तमान सेनापति मिन आंग एलैंग तीन माह में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। वे स्वयं राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। यह लक्ष्य चुनाव के द्वारा नहीं, तख्तापलट से ही मिल सकता है।

सालभर बाद म्यांमार में चुनाव होंगे या नहीं, म्यांमार की जनता क्या करेगी, यह बताना मुश्किल है। फिलहाल, फौज ने सर्वत्र नाकेबंदी कर रखी है लेकिन लोग घरों और मोहल्लों में बर्तन बजा रहे हैं और तख्तापलट के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। सू की की पार्टी के प्रवक्ता ने बर्मी-जनता और विभिन्न राष्ट्रों से अपील की है कि वह इस फौजी कार्रवाई की भर्त्सना करे। जो बाइडेन के अमेरिका ने इस तख्तापलट की कड़ी भर्त्सना की है, साथ में कहा है कि इस चुनी हुई सरकार को पुनः प्रतिष्ठित नहीं किया गया, तो अमेरिका म्यांमार के विरुद्ध कड़े कदम उठाएगा। यानी जो प्रतिबंध उसने पहले लगाए थे, उन्हें फिर थोप देगा।

यूरोपीय राष्ट्रों ने भी फौज की कड़ी निंदा की है लेकिन चीन ने इसे म्यांमार का आंतरिक मामला बताकर अंदर ही अंदर सुलझाने की बात कही है। सच यह है कि बर्मा की फौज और चीन में लंबे समय से गहरी सांठ-गांठ चल रही है। म्यांमार का चीन सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है और चीन उसे सबसे ज्यादा विदेशी सहायता देता है। चीन ने उसके साथ फौजी सहकार में भी काफी गहराइयां नापी हैं।

जहां तक भारत का सवाल है, उसने म्यांमार में तख्तापलट का विरोध उतनी स्पष्टता से नहीं किया, जितना अमेरिका ने किया है। भारत सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों पर हुए अत्याचार के बारे में भी साफ रवैया नहीं अपनाया था। भारत के मुकाबले चीन ने अधिक सक्रियता दिखाई थी। भारत बर्मी लोकतंत्र का शाब्दिक समर्थन जरूर करेगा, लेकिन उसे पता है कि वह म्यामांर की राजनीति में वैसा हस्तक्षेप नहीं कर सकता, जैसा उसने कभी बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में किया था। यदि भारत सचमुच दक्षिण एशिया का महाराज और सूत्रधार है, तो उसके अड़ोस-पड़ोस में लोकतंत्र की हत्या पर उसकी तटस्थता ठीक नहीं है।

डा. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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