डिगता विश्वास

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केंद्र सरकार से कृषि कानून को रद कराने के लिए लगभग सार दिन से चल रहा किसानों का आंदोलन जहां हर दिन सशत होता दिखाई दे रहा है, वहीं किसानों को टुकड़े-टुकड़े गैंग, खालिस्तानी, पाकिस्तानी, नसली कहने वाली सरकार इन किसानों के मजबूत इरादों का आंकलन नहीं कर सकी। विज्ञान भवन में लगातार 12 बार की वार्ता के बाद भी किसानों की बढ़ती ताकत को नजरअंदाज करती रही। आंदोलन जितना लंबा हो रहा है, उतना ही वह मजबूत होता जा रहा है। जिसकी गूंज विदेशों तक पहुंच रही है। परिणामस्वरूप ये आंदोलन विदेशों में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। गणतंत्र दिवस की वह घटना, जो असामाजिक तत्वों के द्वारा राष्ट्र को शर्मसार कर देने वाली थी, उसके बाद लग रहा था कि शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे किसान अपनी मुहिम को खत्म कर देंगे। लेकिन प्रशासन द्वारा किसान शिविरों की लाइट काटना, आंदोलन स्थल पर पुलिस फोर्स को बढ़ाना, बसों को लगा देना और मीडिया द्वारा आंदोलन खत्म कराने का प्रचार करना, इसके अलावा सोने पर सुहागा ये कि भाजपा के दो विधायकों द्वारा जबरन आंदोलन खत्म करने की चेतावनी से किसानों ने तानाशाही महसूस की।

कमजोर पड़े किसानों को देख भाकियू प्रवता राकेश टिकैत का भावुक होना इस आंदोलन को मजबूत कर गया। अब स्थिति यह है कि सरकार को सुरक्षा के लिए दिल्ली की किलेबंदी करनी पड़ रही है। यही नहीं एक मजबूत सरकार को कानूनों का आंकलन करने के लिए संसद के अंदर सर्वदलीय बैठक बुलानी पड़ी। कानून के मसौदे पर चर्चा करनी पड़ रही है। कृषि कानून के मुददे पर सरकार के अडि़लय रवैये ने किसान आंदोलन को इतना मजबूत कर दिया है कि अब लोग धर्म, जात-पांत से ऊपर उठकर आपसी मतभेद भुलाते हुए इस आंदोलन के समर्थन में उठ खड़े हुए हैं। इस आंदोलन से जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में परिवर्तन होने के आसार दिखाई दे रहे हैं, वहीं पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र में नई सियासत की बयार चल रही है। एक समय था कि जब राज्यों के पुनर्गठन के दौरान हरियाणा के पंजाब से अलग होते समय इन दोनों प्रदेशों के जाट एक-दूसरे को फूटी आंख से देखने के लिए तैयार नहीं थे। दूसरे, पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान हरियाणा के जाटों के काफी मनाने पर भी उप्र के जाट भाजपा विरोधी मतदान करने पर राजी नहीं हुए थे।

अटल बिहारी सरकार द्वारा आरक्षण का लाभ देने के कारण राजस्थान के जाट पहले से भाजपा समर्थक माने जाते हैं। इसके उलट पंजाब के सिख जाट किसान भाजपा को नापसंद करते हैं। जो भी हो, इस आंदोलन में सभी एक जैसी शिद्दत से भाग ले रहे हैं। भाजपा ने अगर अतीत पर थोड़ी सी निगाह डाली होती तो यह पहलू उसकी समझ में आ गया होता। यदि भाजपा को देश में लंबे समय तक शासन करना है तो उसे अपने साा के अंहकार को त्यागकर किसानों को विश्वास में लेना होगा। केंद्र सरकार को इन कृषि कानून पर पुर्नविचार करना होगा। आंदोलित किसानों की मांगों को ध्यान में रखते हुए आंदोलन के समाधान की ओर कारगर रणनीति अपनानी होगी। इस समस्या का समाधान वार्ता से ही संभव है, जिसकी पहल सरकार को स्वयं करनी चाहिए। ताकि सरकार के प्रति किसानों में जो विश्वास है वह बरकरार रहे और इस आंदोलन को जन अंदोलन बनने से रोका जा सके। सरकार को इस दिशा में किसानों के फोन का इंतजार नहीं करना चाहिए, क्योंकि किसान अपनी ओर से पहल करेंगे, इसकी संभावना कम दिखाई दे रही है।

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