क्रिकेट को दीवानगी की हद तक प्यार करने वाले अपने देश में आजकल खुशी का माहौल है। इसकी वजह है पहली बार ब्रिस्बेन के गाबा मैदान पर टेस्ट जीतकर ऑस्ट्रेलिया को लगातार दूसरी बार उसके घर में मात देते हुए टेस्ट सीरीज पर कब्जा जमाना। सीरीज ने ऋषभ पंत, मोहम्मद सिराज, शार्दुल ठाकुर, शुभमन गिल, वाशिंगटन सुंदर और टी नटराजन के रूप में देश को नए क्रिकेट हीरो दिए हैं। ये सभी खिलाड़ी या तो छोटे शहरों-कस्बों से ताल्लुक रखते हैं या फिर गरीब और कमजोर पृष्ठभूमि वाले हैं। क्रिकेट प्रेमियों ने टीम का भव्य स्वागत कर इन नए हीरोज के प्रति अपने जज्बात दिखा दिए हैं।
भारतीय टीम की यह सफलता देश में बदले ट्रेंड की तस्वीर दिखाती है। भारतीय क्रिकेट का इतिहास देखें तो शुरुआती दौर में क्रिकेट पर राजा-महाराजाओं का दबदबा था लेकिन 1931 में भारत के टेस्ट खेलना शुरू करने के बाद धीरे-धीरे क्रिकेट पर मेट्रो शहरों जैसे मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद और कोलकाता का दबदबा बन गया। यह दबदबा छह-सात दशक तक बना रहा। इस दौरान 1978 में कपिलदेव का उदय हुआ और लगा कि छोटे शहरों के क्रिकेटर भी टीम में स्थान बना सकते हैं। यह सही है कि कपिलदेव की अगुआई में 1983 में विश्व कप जीतने से देश भर के युवा क्रिकेटरों को इस तरफ आने की प्रेरणा मिली, लेकिन क्रिकेट मेट्रो शहरों की जकड़ से बाहर नहीं निकल सका।
सही मायनों में माहौल साल 2000 में महेंद्र सिंह धोनी के आने के बाद बदला। धोनी न केवल रांची जैसे छोटे शहर से ताल्लुक रखते थे बल्कि साधारण पृष्ठभूमि से भी आते थे। इससे छोटे शहरों के अलावा कमजोर पृष्ठभूमि वाले क्रिकेटरों में भी यह जज्बा जगा कि वे टीम इंडिया में स्थान बना सकते हैं। धोनी से प्रेरणा पाकर ढेरों छोटे शहरों के क्रिकेटरों ने यह उपलब्धि हासिल की। स्थिति यह हो गई कि पिछले एक दशक में टीम इंडिया को मेट्रो शहरों से ज्यादा क्रिकेटर छोटे शहरों और कस्बों ने दिए हैं। इंग्लैंड के खिलाफ पहले दो टेस्ट के लिए चुनी गई टीम में भी आधे से ज्यादा क्रिकेटर छोटे शहरों से आते हैं।
धोनी के क्रिकेट में आने और आसमानी ऊंचाई हासिल करने से पहले हमें छोटे शहरों के क्रिकेटरों के ऐसे किस्से ही सुनने को मिलते थे कि वे टीम इंडिया के ट्रायल में गए और बेइज्जत होकर लौट आए। उदाहरण के लिए यूपी के आनंद शुक्ला का किस्सा बताया जाता है, जिसके मुताबिक उन्हें ट्रायल के लिए मुंबई बुलाया गया और पॉली उमरीगर ने उनकी गेंदों पर एक ओवर में पांच छक्के लगाकर उन्हें घर लौटा दिया। सच यह है कि यूपी जैसे देश के तमाम प्रदेशों के क्रिकेटरों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका ही नहीं मिल पाता था। लेकिन धोनी के आगमन के बाद हरभजन सिंह, ईशांत शर्मा, आरपी सिंह, सुरेश रैना जैसे दर्जनों क्रिकेटर अपने सपनों को साकार करने में सफल हुए।
ग्रेग चैपल ने 2005 में भारतीय टीम का कोच बनने के बाद इस सच को पहचाना। उन्होंने कहा था कि अब भारत में क्रिकेटर मेट्रो शहरों के बजाय छोटे शहरों से आएंगे, इसलिए इन शहरों को प्रतिभाएं तलाशने पर ध्यान देना चाहिए। धोनी से पहले की स्थिति का अंदाजा खुद धोनी के उदाहरण से हो जाता है। वह युवराज की पंजाब एकादश के खिलाफ 1999 में अंडर-19 टूर्नामेंट के फाइनल में शेष भारत एकादश से खेले थे और प्रदर्शन भी शानदार किया था। फिर भी युवराज के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलना शुरू करने के कई साल बाद ही उन्हें भारतीय टीम में जगह मिल सकी।
यह भी किसी हद तक सच है कि छोटे शहरों और गांवों के क्रिकेटरों का लालन-पालन मुश्किल हालात में होता है। उन्हें अपने सपनों को साकार करने के लिए जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है। अब आप ऋषभ पंत, मोहम्मद सिराज, नटराजन, वाशिंगटन सुंदर, शुभमन गिल और शार्दूल ठाकुर के शुरुआती करियर पर नजर डालें तो साफ होता है कि उन्होंने अपने सपने साकार करने के लिए किस तरह की दिक्कतें झेली हैं। पंत उत्तराखंड के छोटे से शहर रुड़की के रहने वाले हैं। उन्हें दक्षिण दिल्ली स्थित तारक सिन्हा की क्रिकेट अकादमी में अभ्यास कराने के लिए उनकी मां रात 2.30 बजे की बस से बैठकर दिल्ली आती थीं। शार्दूल ठाकुर पालघर से 90 किमी की यात्रा करके शुरुआती प्रशिक्षण के लिए मुंबई आते थे। तमिलनाडु के शहर सालेम से 36 किमी दूर स्थित चिन्नप्पमपट्टम में रहने वाले नटराजन के पिता थंगारासु करघा कारीगर थे और माता खाने की दुकान चलती थीं।
हालात इतने खराब थे कि नटराजन को क्रिकेट के जूते खरीदने के लिए भी महीनों सोचना पड़ता था। मोहम्मद सिराज बड़े शहरों में शुमार हैदराबाद के रहने वाले हैं लेकिन उनके पिता मोहम्मद गौस ऑटो रिक्शा चलाते थे। उन्होंने बेटे की जरूरतों को पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास किए। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि बेटा टेस्ट क्रिकेट खेले। बेटा टेस्ट क्रिकेट खेला भी पर इसके ठीक पहले पिता का इंतकाल हो गया। उनके निधन का समाचार मिलने के बाद भी सिराज ने टेस्ट खेलकर पिता का सपना साकार करने का निश्चय किया और तीन टेस्ट में 13 विकेट लेकर भारत के सफलतम गेंदबाज बने।
मुश्किलों से जूझने का जज्बा शुभमन गिल, नवदीप सैनी और वाशिंगटन सुंदर की भी मुश्किलों भरी कहानी रही है लेकिन सबमें एक बात समान है कि इन सबने और इनके घरवालों ने भी राह में आई मुश्किलों का दिलेरी से सामना किया। इसीलिए उनका जज्बा सलाम करने लायक है। पृथ्वी शॉ और यशस्वी जायसवाल जैसे क्रिकेटर भी इसी श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने अपनी लगन से कामयाबी पाकर देश की क्रिकेट का ट्रेंड बदल दिया है। इस बदले माहौल में अब यह मायने नहीं रखता कि आप गरीब परिवार से हैं या छोटे शहर या कस्बे या गांव से आए हैं। आप में प्रतिभा के साथ आगे बढ़ने की लगन है तो आपको अपने सपने साकार करने के लिए कोई न कोई राह मिलनी तय है।
मनोज चुतर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)