किसानों के प्रदर्शन स्थल सिंघु गांव में पिछले सप्ताह एक तस्वीर ने मेरा ध्यान खींचा। द प्रिंट की फोटोग्राफर ने प्रदर्शन स्थल पर बने एक अध्ययन कक्ष में पढ़ते हुए तीन महिलाओं की फोटो खींची। महिलाओं के सिर के ऊपर लगा एक साइनबोर्ड अहम कहानी कह रहा था, जिस पर लिखा था- ‘उड़ता पंजाब नहीं, पढ़ता पंजाब’ यानी पंजाब अब नशाखोरी वाला पंजाब नहीं, पढ़ने-लिखने वाला पंजाब है।
फिल्मों से दूर रहने वालों को बता दें कि 2016 में ‘उड़ता पंजाब’ नाम की एक फिल्म आई थी। इसे कुछ लोगों ने ब्लैक कॉमेडी करार दिया, लेकिन असल में इसमें एक गहरा राजनीतिक संदेश देने की कोशिश थी। विपक्ष में बैठी कांंग्रेस और नई एंट्री कर रही ‘आप’ के लिए सत्ता में आने का यह अच्छा मुद्दा था।
फिल्म ने पूरे देश का ध्यान पंजाब की ओर खींचा मगर पंजाब में कई लोग इससे नाराज हुए। समय के साथ उड़ता पंजाब की कहानी भी भुला दी गई, लेकिन इसने पंजाब को बदनाम कर दिया।
जाहिर है, ऊपर जिस साइनबोर्ड का जिक्र है, वह पंजाबियों की नकारात्मक छवि पर पंजाबियों की ओर से दिया एक जवाब है। वह कहना चाहता है कि हमारे बारे में आप जो सोचते हैं, उसके अलावा भी बहुत कुछ है। अखंड पंजाब का बेटा होने के नाते मैं यही कहूंगा- शाबाश!
1966 के बाद जिसे विभाजित कर तीन राज्य बनाए गए, वहां के लोगों में कई खामियां होंगी, मगर वे इतने भी बुरे नहीं हैं। न ही हमारे सारे युवा भांगड़ा-पॉप संगीत कंसर्ट में नशे में डूबे रहते हैं और न ही हमारे पिता-चाचा खेतों में मेहनत करने की जगह हेरोइन की तस्करी करते हैं। न ही वे अपने खेतों पर काम करने के लिए बिहार से आए गरीब मजदूरों पर अत्याचार करते हैं।
क्या मुझे नहीं दिखता कि ‘उड़ता पंजाब’ की छवि बनाने वाले कुछ प्रमुख चेहरे ही ‘पढ़ता पंजाब’ की दुहाई देने में भी व्यस्त हैं। ‘आप’ उन्हें राजनीतिक समर्थन देने के साथ-साथ मुफ्त वाई-फाई दे रही है। अखिल भारतीय वाम दल भी आंदोलन की अगुआई कर रहा है। कोई भी ड्रग्स के खतरे की बात नहीं कर रहा, जिसे भले ही फिल्म में आधे-अधूरे ढंग से दिखाया गया हो, लेकिन यह एक हकीकत है।
बीते चार साल में ऐसा क्या हो गया कि दिलजीत दोसांझ उड़ता से पढ़ता में तब्दीली का गुणगान कर रहे हैं? क्या अमरिंदर सिंह की कांग्रेस सरकार ने इतना चमत्कार कर दिया है? कृषि कानूनों के लिए पंजाब और पंजाबियों की अपनी आशंकाएं, अविश्वास और शिकायतें हैं। 1981 से 1993 के बीच आतंकवाद के कारण पंजाब में लाखों लोग मारे गए।
राज्य से प्रतिभाओं, पूंजी और उद्यमियों का पलायन हुआ। पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले लुधियाना से अधिकतर उद्यमी घराने पलायन कर गए। बाकी देश आगे बढ़ता रहा, और पंजाब केवल कृषि प्रधान राज्य बना रहा। वह 1991 के बाद आई आर्थिक वृद्धि की लहर पर सवार नहीं हो सका।
प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से देश का सबसे अमीर राज्य होने के कारण पंजाब निश्चिंत बैठा रहा और दूसरे राज्य औद्योगिकीकरण से आगे बढ़ते रहे। 2002-03 आखिरी साल था, जब पंजाब अगले पायदान पर था, पर आज वह 13वें पायदान पर है। अफसोस की बात है कि उसकी प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से मात्र 15% ज्यादा है। गोवा, सिक्किम जैसे छोटे राज्य छोड़िए, वह हरियाणा (5वें नंबर) और हिमाचल प्रदेश (12वें नंबर) से भी नीचे चला गया है।
अमरिंदर सिंह की सरकार ने मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में कमेटी बनाई थी, उसके भी आंकड़े देख लीजिए। वे बताते हैं कि कृषि में भी पंजाब पिछड़ रहा है। 2004-05 से 2019 के बीच 15 साल में पंजाब ने कृषि में मात्र 2% की वृद्धि दर्ज की, जबकि बिहार ने 4.8% और यूपी ने 2.8% की वृद्धि की। प्रति व्यक्ति आय के मामले में उससे 25% ज्यादा अमीर महाराष्ट्र में कृषि में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई, यानी फासला बढ़ रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि MSP और सब्सिडी जारी रहनी चाहिए, लेकिन पंजाब को अपनी उद्यमशीलता को फिर से खोजने की जरूरत है। केवल एमएसपी की मांग तक सीमित न रहकर उसे जमीन के इस्तेमाल की आजादी की भी मांग करनी चाहिए। यहां तक कि हरियाणा ने भी इस मामले में दायरा बढ़ाया है और अपने किसानों को कल-कारखानों और गोडाउन के लिए अपनी जमीन किराये पर देने की छूट दी है।
पंजाब और उसके किसानों को आर्थिक आजादी की छूट मिलनी चाहिए। उन्हें केवल गेहूं-धान और MSP के सुकून में ही नहीं रहना चाहिए। अगर आज वे इस बात को नहीं समझेंगे तो वे न तो तरक्की के रास्ते पर रह पाएंगे, न पढ़ता बन पाएंगे, बल्कि वह बॉलीवुड द्वारा प्रचलित ‘फुकरा पंजाब’ बनकर रह जाएंगे।
शेखर गुप्ता
( लेखक एडीटर इन चीफ, द प्रिंट हैं ये उनके निजी विचार हैं)