उत्तर प्रदेश दिवस के समारोह में खादी फैशन शो को शामिल किया गया है। हैंडलूम एवं खादी वस्त्र हमारी सांस्कृतिक विरासत के अभिन्न अंग रहे हैं। ऋग्वेद, महाभारत और रामायण में भी कताई-बुनाई की कला के विवरण मिलते हैं। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में बुने हुए वस्त्र, हड्डी की सुई, तकली और धुरा आदि के अवशेष मिले हैं तो मिस्र के पिरामिड में गुजराती मूल के ब्लॉक प्रिंटेड कपड़े मिले हैं।
आज खादी-हथकरघा क्षेत्र में 40 लाख से अधिक बुनकर और श्रमिक कार्यरत हैं। वर्ष 2010 की हथकरघा जनगणना रिपोर्ट से पता चलता है कि बुनकरों की संख्या प्रतिवर्ष 7 फीसद की दर से घट रही है। एक बुनकर की औसत आय केवल 34 सौ रुपए प्रतिमाह है जो भारत के अन्य कारीगरों की औसत आय 45 सौ रुपए प्रतिमाह से कहीं कम है। इसी वजह से नई पीढ़ी इस धंधे को अपनाना नहीं चाहती, जिसके चलते भारतीय हथकरघा उद्योग विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गया है।
हालांकि वैश्विक हथकरघा उत्पादन में भारत की भागीदारी 85 प्रतिशत से अधिक है। अन्य देश जैसे श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, कंबोडिया और इंडोनेशिया भारत की अपेक्षा बहुत कम उत्पादन करते हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत और वृहद जनसंख्या के कारण भारत पूरे विश्व की हस्तनिर्मित उत्पादों की मांग को पूर्ण करने की क्षमता रखता है। बनारस और चंदेरी का बुनकर परंपरागत साड़ी को समसामयिक बनाने के साथ-साथ यदि निर्यात योग्य उत्पाद जैसे कि स्टोल, स्कार्फ, टाई, बेल्ट, बैग इत्यादि बनाता है, तो उसकी कमाई बढ़ सकती है। बुनकर यदि नवीन चलन के अनुरूप, साड़ियों के साथ अतिरिक्त सामान जैसे बेल्ट, स्टोल, पाउच आदि मैच करके लगा दें, तो यह उनकी आमदनी और निर्यात क्षमता दोनों में वृद्धि करेगा। प्रीमियम हथकरघा उत्पाद जैसे पाटन पटोला, बालूचरी, जामदानी, इक्कत और कानी जैसे उत्पादों को उत्कृष्ट उत्पाद के रूप में प्रस्तुत किए जाने की जरूरत है।
खादी-हथकरघा उद्योग 40 लाख लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है, मगर उन सभी को उच्च स्तरीय उत्पाद के लिए तुरंत प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता। अधिकांश को अलग प्रकार की सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी। उन्हें सब्सिडी वाले यार्न और क्रेडिट की जरूरत होती है। इस क्षेत्र में 6 फीसद ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध है। अगर इसे प्रभावी रूप से लागू किया जाए, तो बुनकरों को बुनाई, रंगाई, प्रॉसेसिंग और फिनिशिंग हेतु आवश्यक पूंजी उपलब्ध कराई जा सकती है।
अगर खादी और हैंडलूम का उत्पादन बड़े पैमाने पर करना है, तो उनके कार्यस्थल में सुधार चाहिए। वर्क स्टेशन एर्गोनॉमिक हो, ताकि वे तेज गति से सिल्क, सूती, ऊनी सभी धागों का उपयोग करके बड़ी मात्रा में वस्त्रों का उत्पादन कर सकें। सौर ऊर्जा चलित चरखा समय की मांग है। अर्ध-स्वचालित करघा, जिसे स्वचालित टेक अप और लेट ऑफ तंत्र के साथ जोड़ा जा सके, एक अच्छा समाधान हो सकता है। सेमी ऑटोमेटिक लूम में बुनकरों द्वारा मोटिव पावर मैनुअली दिया जा सकता है। तकनीकी नवाचार से डिजाइन विकसित करने और उत्पादन की प्रक्रिया को परिष्कृत करने में बहुत मदद मिल सकती है।
खादी और हथकरघा अनुसंधान को प्रोत्साहित करने वाली योजनाओं की बेहद जरूरत है। हाथ से कताई-बुनाई को आधुनिक व्यवसायों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, आईटीआई, पॉलिटेक्निक, एनआईएफटी (निफ्ट) एवं एनआईडी जैसे पेशेवर संस्थान हथकरघा एवं खादी क्षेत्र में प्रशिक्षण देकर इस काम की शुरुआत कर सकते हैं। निफ्ट या एनआईडी का प्रमाणपत्र बुनकरों और कारीगरों के कौशल उन्नयन के साथ ही उनमें गौरव की भावना जगा सकता है। इस प्रकार के रोजगारपरक मानकीकृत कौशल को ग्रहण करने से उन्हें बाजार और समाज में उचित मान्यता भी प्राप्त होगी।
अपने कारीगरों की बहुमुखी प्रतिभा से खादी और हथकरघा सेक्टर समाज और अर्थव्यवस्था में बदलाव की क्षमता रखता है। यह सेक्टर अनादिकाल से पारंपरिक शिल्प का प्रतिनिधित्व करता रहा है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हथकरघा क्षेत्र में पीढ़ी दर पीढ़ी कौशल का हस्तांतरण हुआ और इसी से यह आज पल्लवित और पुष्पित है। इसलिए यह प्रयास करना है कि नई पीढ़ी को इस व्यवसाय से जोड़े रखा जाए ताकि हमारी सांस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण रहे।
मोनिका एम गर्ग
(लेखिका उत्तर प्रदेश सरकार में अपर मुख्य सचिव हैं, ये उनके निजी विचार हैं)