उत्तर प्रदेश के एक कस्बे में चीनी की फैक्टरी मशीन का ब्रेकडाउन हो गया। इंजीनियर ने हाथ खड़े कर दिए, बोला कम से कम 15 दिन लगेंगे। लेकिन एक शस ने इनकी बात को नकारते हुए कहा, कोई और रास्ता निकालना होगा। अगले 48 घंटे उन्होंने वहीं खड़े होकर दिमाग लगाया, टीम का हौसला बढ़ाया और आखिर मशीन चल पड़ी। फैक्टरी को भारी नुकसान से बचाने वाली शसियत थी उसकी मालकिन। जी हां, आपने ठीक पढ़ा, मालकिन। जिनके पास न कोई एमबीए था और न ही बिजनेस चलाने का तजुर्बा। वो थीं मीनाक्षी सरावगी, कलको के मारवाड़ी परिवार की बहू, मगर एक दिन उन्होंने घर के दायरे से बाहर कदम रख लिया। सवाल उठता है, क्यों और कैसे? साल 1932 में स्थापित कंपनी की बागडोर 1975 में सरावगी परिवार ने संभाली। जब परिवार में बंटवारा हुआ तो बलरामपुर चीनी मिल, मीनाक्षी के पति कमलनयन के हिस्से में आई। कंपनी में नुकसान हो रहा था, लोगों ने कहा, ‘बेच दो’। इस मोड़ पर मीनाक्षी ने आगे बढ़कर कहा, कि ‘मैं संभालूंगी’। अब पति-पत्नी के बीच में क्या बात हुई, मुझे नहीं पता। क्या मीनाक्षी ने जिद पकड़ ली और पति ने सोचा कि जाने दो, थोड़े दिन में हारकर वापस आ जाएगी? या फिर हो सकता है कि वो इतने हताश थे, सोचा चलो ये भी ट्राय कर लें?
हमें बस इतना पता है कि मीनाक्षी सरावगी बलरामपुर पहुंचीं और आप सोच सकते हैं कि लोगों को कितना अचंभा हुआ होगा। आज भी तो टॉप पोजीशन में एक औरत को लोग स्वीकार नहीं कर पाते। तो चालीस साल पहले एक छोटे से शहर में कैसी-कैसी बातें हुई होंगी। मीनाक्षी ने यह जानते हुए काम शुरू किया और अपना कमाल दिखाया। कुछ मालिक एसी ऑफिस में बैठकर हुकुम चलाते हैं, पर इस मालकिन ने शॉपफ्लोर पर खड़े होकर वर्कर्स का मन जीता। सुबह पांच बजे वो फैक्टरी में पहुंच जाती थीं। फैक्टरी में काफी समस्याएं थीं, इसलिए रात को भी वो काफी अलर्ट रहती थीं। अगर किसी भी वजह से प्रोडक्शन रुक गया, तो उनके शयनकक्ष में एक लाल बाी के साथ सायरन बजने लगता था। मैनेजर बाबू नींद में, मैडम वहां पहले ही पहुंच गईं। उफ्फ! ऐसी ऊर्जा और आस्था के सहारे मीनाक्षी सरावगी ने अपने अंदर एमडी के गुण उत्पन्न किए। लोगों को समझना और परखना, उनकी समस्याओं को हल करना, उनका आदर पाना, बहुत बड़ी कला है। अगर कर्मयोग के भाव से आप अपनी ड्यूटी करें, तो ये कोई मुश्किल भी नहीं। मगर उसके लिए आप में ना भय होना चाहिए, न लालच। कहते हैं कि मैडम का सबसे ज्यादा बड़ा अचीवमेंट था कि उन्होंने किसान को भी अपना पार्टनर बनाया। चीनी की फैक्टरी को विस्तार देने के लिए अधिक मात्रा में गन्ना चाहिए। किसान को उन्होंने प्रोत्साहित किया और पेमेंट टाइम पर पहुंचाया, इस तरह उन्हें कंपनी की नीयत पर विश्वास हुआ। जो किसान भाई आज आंदोलन कर रहे हैं, जरा सोचें कि ये भी एक मॉडल है।
मीनाक्षी सरावगी के नेतृत्व में बलरामपुर चीनी मिल ने तीस साल के दौरान खूब तरक्की की। उन्होंने 2016 में तबीयत खराब होने की वजह से अपनी पोजीशन छोड़ दी और हाल ही में उनका निधन हो गया। कोई खास चर्चा नहीं हुई, शायद लोग उनकी कहानी से वाकिफ नहीं। ग्लैमर की दुनिया से दूर, असली पर्सनालिटी को हम अनदेखा कर देते हैं। इस कहानी में एक ट्विस्ट है। मीनाक्षी सरावगी ने जब बलरामपुर चीनी मिल की बागडोर संभाली, उनके दो छोटे बच्चे थे। चौदह साल का लड़का और सात साल की लड़की। साल के दस महीने मीनाक्षी बलरामपुर में रहती थीं और बच्चे कलको में। शायद जॉइंट फैमिली होते हुए उनका पालन फिर भी अच्छे से हो गया, ऐसी मेरी उम्मीद है। फिर भी, एक मां के लिए कठिन चॉइस थी। सच यह है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। और यह एक औरत की सबसे बड़ी दुविधा है। अगर वो चाहे कि मैं हर चीज में, घर में भी, बाहर भी, ‘पर्फेक्ट’ हो जाऊं तो वो नहीं हो सकता। फेसबुक पर किसी जानकार ने कहा कि मीनाक्षी सरावगी ने ऐलान किया था कि ‘मैं अपनी झांसी नहीं छोड़ूंगी’। ऐसे जुनून को रोका नहीं जा सकता। तो अगर औरत में चीनी की मिठास है, तो साथ ही लोहे जैसे शक्ति भी है। दोनों के मिश्रण से जंग लड़ो, और आगे बढ़ो। जीत मुमकिन है।
रश्मि बंसल
(लेखिका स्तंभकार और स्पीकर हैं ये उनके निजी विचार हैं)