क्या भारत में अब भी तीसरे मोर्चे की राजनीति की संभावना है और अगर है तो वह राजनीति कैसे होगी? भारत में इससे पहले जब भी तीसरे मोर्चे की सफल राजनीति हुई है तो वह अनायास हुई है। उसके पीछे तात्कालिक परिस्थितियों का हाथ रहा है। ऐसा नहीं हुआ कि किसी एक या कई नेताओं ने बैठ कर रणनीति बनाई, संगठन बनाया, संसाधन जुटाए और तब राजनीति की। देश में अब तक हुई तीसरे मोर्चे की राजनीति की दूसरी अहम बात यह है कि वह बुनियादी रूप से कांग्रेस विरोध की राजनीति रही थी। उस समय देश की राजनीति में कोई दूसरी धुरी नहीं होती थी। कांग्रेस की एकमात्र धुरी होती थी, जिसके खिलाफ मोर्चा बना कर राजनीति हुई, पहली बार इमरजेंसी के विरोध में और और दूसरी बार बोफोर्स के मुद्दे पर।
दोनों बार राजनीति बुनियादी रूप से कांग्रेस विरोध की ही थी। इमरजेंसी विरोध की लड़ाई तो खैर कांग्रेस के खिलाफ थी ही, बोफोर्स के मामले पर वीपी सिंह के नेतृत्व में जो मोर्चा लड़ रहा था उसमें और भाजपा में कोई मतभेद नहीं था। दोनों एक-दूसरे के पूरक की तरह चुनाव लड़ रहे थे। दोनों के निशाने पर राजीव गांधी और कांग्रेस ही थे और तभी चुनाव के बाद भाजपा के समर्थन से वीपी सिंह को सरकार बनाने में कोई दिक्कत नहीं आई। जहां तक 1996 के प्रयोग की बात है तो उस समय तीसरे मोर्चे की सरकार जरूर बनी थी लेकिन तीसरा मोर्चा किसी प्रयोग की तरह चुनाव में नहीं लड़ा था। वह संयोग था कि कांग्रेस या भाजपा किसी को भी सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं आया तो लेम डक अरेंजमेंट के तौर पर तीसरे मोर्चे की सरकार बनवा दी गई।
इस लंबी भूमिका का मकसद यह बताना है कि असल में भारत में अभी तक तीसरे मोर्चे की राजनीति कायदे से हुई ही नहीं है। अब तक जिसको तीसरे मोर्चे की राजनीति कहा जाता था, वह असल में दूसरे मोर्चे की और कांग्रेस विरोध की राजनीति होती थी। तभी सवाल है कि क्या भारत में अब किसी तीसरे मोर्चे की राजनीति की संभावना है? इसका जवाब कुछ वर्ष पहले आधुनिक भारतीय राजनीति के सबसे बेहतरीन विश्लेषकों में से एक लालकृष्ण आडवाणी ने दिया था। उन्होंने भारत में गठबंधन की राजनीति के अलग अलग पहलुओं के बारे में बात करते हुए बताया था कि अब तीसरे मोर्चे की राजनीति संभव नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी की 1998 और 1999 की दो सरकारों और बाद में मनमोहन सिंह की 2004 व 2009 की सरकारों के प्रयोग ने यह स्थापित कर दिया कि जो राजनीति 1989 में या 1996 में हुई थी, उसका समय बीत गया। अब भले लोकसभा त्रिशंकु हो लेकिन सबसे अधिक सांसदों वाली पार्टी को छोड़ कर सरकार बनाने की कल्पना नहीं की जा सकती है और अभी यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि सबसे अधिक सांसदों वाली पार्टी भाजपा रहेगी या कांग्रेस!
कहा जा सकता है कि तीसरे मोर्चे की राजनीति अलग चीज है और सरकार बनाना अलग है। सरकार बने या न बने, राजनीति तो हो ही सकती है! यह बात ठीक है कि सरकार बने या न बने, तीसरे मोर्चे की राजनीति हो सकती है। ऐसे में अगला सवाल है कि वह राजनीति कैसे होगी? क्या तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव विशेष विमान में बैठ कर उड़ेंगे और चेन्नई, भुवनेश्वर, कोलकाता, पटना में प्रादेशिक क्षत्रपों से मिलेंगे और एक तीसरा मोर्चा बन जाएगा? केसीआर ने कुछ ऐसी ही उम्मीद जाहिर की है। लेकिन इस किस्म का प्रयास वे पहले भी कर चुके हैं। उनसे पहले चंद्रबाबू नायडू यह प्रयास कर चुके हैं और ममता बनर्जी भी हाथ-पैर मार चुकी हैं। किसी को कामयाबी नहीं मिली।
इस तरह से तीसरे मोर्चे की राजनीति कामयाब नहीं होने के कई कारण हैं। सबसे पहला कारण यह है कि भारत में अब पार्टियां विचारधारा से संचालित होने की बजाय पार्टी सुप्रीमो की सोच से संचालित होती हैं। जैसे ममता बनर्जी ने सोच लिया कि किसानों के भारत बंद के साथ नहीं खड़ा होना है क्योंकि लेफ्ट पार्टियां उनके साथ खड़ी हैं। यानी जहां लेफ्ट पार्टियां खड़ी होंगी वहां ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस नहीं खड़ी होगी। इस तरह के विरोधाभास देश की अनेक पार्टियों के बीच देखने को मिलेगा और वह इसलिए क्योंकि पार्टियों की कोई विचारधारा नहीं रह गई है। हर पार्टी सिर्फ अपने राज्य की सत्ता हासिल करने या सत्ता में बने रहने के एकमात्र लक्ष्य से निर्देशित हो रही है।
देश के तमाम क्षत्रपों की चाहना राज्य की सत्ता हासिल करना है। केसीआर भी अगर राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे की सोच रहे हैं तो उसका मकसद भी तेलंगाना की सत्ता बचाए रखना ही है। उससे आगे की तस्वीर वे नहीं देख पाते हैं। इसलिए कोई प्रादेशिक क्षत्रप राष्ट्रीय स्तर पर कोई मोर्चा बना लेगा, यह सोचना भी बेमानी है।
तीसरे मोर्चे की राजनीति की दूसरी मुश्किल यह है कि अब देश की राजनीति एक बार फिर एक धुरी वाली हो गई है। जैसे पहले कांग्रेस राजनीति के केंद्र में होती थी वैसे अब भाजपा केंद्र में हैं। जैसे पहले कांग्रेस विरोध की राजनीति होती थी वैसे अब भाजपा विरोध की राजनीति होती है। एक-एक करके भाजपा के सहयोगी उसका साथ छोड़ गए हैं और वह लगभग वैसे ही अकेली है, जैसे कभी कांग्रेस होती थी। उसकी ताकत उतनी ही बड़ी हो गई है, जितनी किसी जमाने में कांग्रेस की होती थी। इसलिए आज अगर कोई मोर्चा बनता है तो वह अपने आप भाजपा विरोधी मोर्चा हो जाएगा। इसकी संभावना बहुत कम है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों से एक साथ लड़ने वाला कोई मोर्चा बने।
तीसरे मोर्चे की राजनीति की तीसरी मुश्किल यह है कि जैसे ही कोई साझा मोर्चा बनेगा यह मान लिया जाएगा कि यह भाजपा विरोधी राजनीतिक मोर्चा है, चाहे उसमें कांग्रेस हो या नहीं हो! वह मोर्चा भाजपा से लड़ने के लिए बनेगा और उसके बारे में यह धारणा बनेगी या बनाई जाएगी कि इसके पीछे कांग्रेस का हाथ है। अभी भारत का समाज जिस तरह से बंटा हुआ है उसमें इस किस्म की धारणा बनने के अपने खतरे हैं। उत्तर प्रदेश के दो अलग अलग चुनावों में सपा और बसपा के गठबंधन या सपा और कांग्रेस गठबंधन का क्या हस्र हुआ वह सबने देखा। सो, जहां भी इस किस्म का साझा मोर्चा बनेगा वहां ज्यादा संभावना ऐसे ही नतीजों के दोहराव की है। इसके कुछ अपवाद भी हो सकते हैं, जैसा बिहार में पांच साल पहले हुआ था।
सो, निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि भारत में कम से कम अभी तीसरे मोर्चे की राजनीति के बारे में नहीं सोचा जा सकता है। भारत में प्रादेशिक क्षत्रपों के निजी अहंकार और सत्ता की चाहना इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनेगी। किसी विचारधारा की अनुपस्थिति भी इसका कारण बनेगी तो कांग्रेस की कमजोरी भी इसकी एक वजह होगी। भाजपा का बहुत शक्तिशाली हो जाना भी अभी तीसरे मोर्चे की संभावना को कमजोर कर रहा है।
अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)