अन्नदाता के हौसलों की परीक्षा

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मोदी सरकार ने विपक्ष और विरोध के स्वरों की उपेक्षा-अनदेखी करते हुए तीन कृषि कानून पारित कर जबरन किसानों पर लाद दिये। इन तथाकथित काले कानूनों का सारे देश और विशेषकर हरियाणा और पंजाब के किसानों ने विरोध किया, विरोध कर रहे हैं। दो महीने से अधिक समय तक पंजाब में ट्रेनों का आवागन बाधित रहा क्योंकि किसान पटरियों पर बसेरा बनाकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। विरोध करते-करते आंदोलनरत किसान दिल्ली के दरवाजे पर पहुंच गये तो उनका स्वागत पुलिस ने लाठियों, आंसू गैस के गोलों और ठंडे बदबूदार पानी की बौछारों से किया। लेकिन कड़ी धूप, बरसात और भीषण ठंड में खेतों में काम करने वाले मेहनतकश अन्नदाताओं का हौसला पस्त करने में सरकार कामयाब नहीं हो सकी। थोड़ी बहुत मामूली झड़पों के अलावा किसानों का दिल्ली कूच शांत रहा। जब किसानों ने दिल्ली में प्रवेश की हठ नहीं छोड़ी तो सरकार ने उन्हें बुराड़ी के निरंकारी समागम स्थल तक जाने की अनुमति दे दी। लेकिन किसान इससे संतुष्टï नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि बुराड़ी मैदान में आंदोलन-अनशन करने से सरकार पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं पड़ेगा। इसलिये उन्होंने हरियाणा-पंजाब की ओर से आने वाले रास्तों को ही जाम करके रख देने का निश्चय किया। गतिरोध जारी है।

किसान आंदोलन में आये भारी उफान को देखकर केंद्र सरकार हरकत में आई और कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने अहसान जताते हुए कहा-‘सरकार किसानों की बात सुनने को तैयार है।’ मंत्री महोदय ने अपना पलड़ा भारी करते हुए कहा-‘सरकार किसानों से बातचीत को तैयार थी, तैयार है और तैयार रहेगी।’ ज्यदि वास्तव में ऐसा है तो अब तक बातचीत यों नहीं की गई? क्या सरकार के पास किसानों से वार्ता के लिए समय नहीं था? क्या इसीलिये किसानों के दिल्ली पहुंचने का इंतजार किया गया? और अब बातचीत को कथित रूप से तैयार और बेताब बैठी सरकार दिल्ली पहुंच गये किसानों से तीन दिसम्बर को वार्ता करेगी। क्या ड्रामा है? ऐसा कौन सा जरूरी काम कर रहे हैं नरेन्द्र सिंह तोमर जो वार्ता के लिए पाँच दिन बाद समय निकाल पाएंगे? हालात बिगड़ते नजर आए तो गृहमंत्री अमित शाह ने जरूर दरियादिली दिखाई और किसानों से तत्काल बात करने की इच्छा जताई। पर किसान अडिग हैं अपनी मांगों पर। किसानों की तीन मुख्य मांगों में से सबसे बड़ी मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य बोले तो एमएसपी को कानूनी जामा पहनाये। लेकिन सरकार इस मांग को मानने के लिए न जाने किन कारणों से तैयार नहीं है। यदि मोदी सरकार वास्तव मे किसानों की हितैषी है तो उसे इस मांग को मानकर किसानों को खुश कर देना चाहिए, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा।

शायद सरकार ने किसानों के हितों पर वर्ग विशेष को प्राथमिकता देने का वादा कर लिया है। राजनीति है कुछ भी हो सकता है, सरकार को किसानों से ज्यादा कोई और भी तो प्यारा/प्यारे हो सकते हैं। माना यह जा रहा है सरकार इस मामले में अपने कदम पीछे नहीं लेगी, मतलब गतिरोध लंबा चलेगा। इस बीच भाजपा के मार्गदर्शक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसान संगठन भारतीय किसान संघ ने सरकार द्वारा किसानों की मांगें जल्द से जल्द पूरी न किये जाने की स्थिति में आंदोलन करने की चेतावनी दी है। इस चेतावनी में किसानों के प्रति हमदर्दी से ज्यादा इस बात की चिंता अधिक जताई-बताई जा रही है कि अगर सरकार ने जल्दी ही कोई कदम नहीं उठाया तो राजनीतिक दल किसानों का इस्तेमाल कर लेंगे, जिसका बड़ा नु़कसान भाजपा को हो सकता है। संगठन ने कहा है कि उसकी आंदोलन की तैयारी चल रही है और वह कभी भी सड़कों पर उतर सकते हैं। भारतीय किसान संघ अपनी तीन मांगों-खरीद को एमएसपी से जोड़ा जाए, ट्रेडर्स का पंजीकरण हो और कृषि अदालतें बनें-पर कायम है और इससे कम पर किसी समझौते के पक्ष में नहीं है। देखना दिलचस्प होगा कि मोदी सरकार कथित काले कृषि कानूनों को वैसे ही वापस लेती है जैसे उसने 2014 में भूमि अधिग्रहण बिल को वापस लिया था क्या फिर कुछ और ही गुल खिलाती है?

राकेश शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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