अरब जगत में सिनेमा के जरिये बदलाव

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तुर्की के पत्रकार नीलूफर देमिर की खींची हुई मार्मिक तस्वीर ने मिस्र (इजिप्ट) के एक बड़े और पुराने ईसाई उद्योगपति समीह साविरिस और उनके भाई नागूब साविरिस को इतना विचलित कर दिया कि उन्होंने शरणार्थियों के लिए एक टापू खरीदने का मन बनाया। वह तस्वीर सीरिया के युद्ध से भागकर अपनी मां और भाई के साथ यूरोप के रास्ते कनाडा जाते हुए भूमध्य सागर में 2 सितंबर 2015 को डूब जाने वाले तीन साल के अलान कुर्दी नामक बच्चे की थी, जिसे तुर्की के ब्रोदुम समुद्र तट पर मृत पड़ा हुआ देखा गया था। दिल दहलाने वाली यह तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई थी। साविरिस बंधु किन्ही कारणों से टापू तो नहीं खरीद पाए, लेकिन 22 सितंबर 2017 को मिस्र की राजधानी काहिरा से 445 किलोमीटर दूर लाल सागर के किनारे बसाए गए अपने निजी शहर अल गूना में अरब दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण फिल्म फेस्टिवल जरूर शुरू कर दिया। उनका मानना था कि सिनेमा धीरे-धीरे अरब दुनिया को बदल देगा। अरब सिनेमा में मिस्र के मोहम्मद दियाब की फिल्म ‘678Ó से मशहूर हुई अभिनेत्री बुशरा रोजा ने जब साविरिस बंधुओं को अल गूना फिल्म फेस्टिवल का आइडिया दिया तो वे तुरंत मान गए। तब किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि महज चार साल में ही यह अरब दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोह बन जाएगा।

इसकी वजह है फिल्मों की गुणवाा, मानवीय सरोकार, विचारों की आजादी और मार्केटिंग। बुशरा रोजा 2021 में अमिताभ बच्चन को सपरिवार आमंत्रित कर उनकी फिल्मों पर यहां एक विशेष कार्यक्रम करना चाहती हैं। मिस्र में अमिताभ बच्चन के प्रति पागलपन की हद तक दीवानगी है। मिस्र में दो चीज़ें सबसे महत्वपूर्ण हैं। गिजा के पिरामिड और नील नदी। लेकिन सिनेमा की दुनिया के लिए मिस्र की सबसे बड़ी देन है- ओमर शरीफ। ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ (1962) और ‘डॉ. जिवागो’ (1965) जैसी फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाने के कारण दुनिया भर में ओमर शरीफ को याद किया जाता है। अल गूना फिल्म फेस्टिवल ने उनके सम्मान में अरब के युवा अभिनेताओं के लिए ओमर शरीफ अवॉर्ड शुरू किया है। अल गूना फिल्म फेस्टिवल शुरू होने के बाद अरब सिनेमा को दुनिया के बड़े फिल्म समारोहों में जगह मिलने लगी है और यहां दिखाई गई अधिकतर फिल्में अफ्रीकी और यूरोपीय सिनेमा घरों में प्रदर्शित हो रही हैं। दुबई, अबू धाबी, और दोहा ट्रिबेका फिल्म समारोहों के बंद होने और दूसरे फिल्म समारोहों के निस्तेज हो जाने के बाद अल गूना फिल्म फेस्टिवल का महत्व और बढ़ गया है। शरणार्थी समस्या, राजनीतिक अस्थिरता, स्त्री सशतीकरण और दूसरे मानवीय विषयों पर अरब सिनेमा में नई पहल देखी जा रही है।

इसी क्रम में अलगूना फिल्म फेस्टिवल और जेनेवा (स्विट्जरलैंड) स्थित संयुत राष्ट्र कार्यालय में शरणार्थी मामलों के राजदूत के बीच मिस्र में शरणार्थी समस्या को लेकर एक विस्तृत समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। फ्रांस में हुई हाल की हिंसक घटनाओं और उसके खिलाफ हुए प्रदर्शनों और इस्लामी आतंकवाद के बीच हुए इस समारोह का मुख्य विषय रखा गया ‘मानवता के लिए सिनेमा’। 23 अटूबर से 31 अटूबर तक चले चौथे अल गूना फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत ट्यूनीशिया की महिला फिल्मकार कौथर बेन हनिया की फिल्म ‘द मैन हू सोल्ड हिज स्किन’ से हुई। लेबनान की राजधानी बेरूत में एक मसीहाई कलाकार जेफ्री कोडेफ्रोई सीरिया के युद्ध से भागकर आए एक शरणार्थी नौजवान साम अली की नंगी पीठ पर ही शेनजेन वीजा के चित्र बनाकर उसे सशरीर प्रदर्शनी में बिठा देता है। अब तक कैनवास और दीवारों पर ही पेंटिंग्स बनाने का रिवाज रहा है। मोरको के इसराइल फारूकी की फिल्म ‘मिका’ में एक आठ साल का अनाथ बच्चा मजदूरी करके इतना पैसा कमा लेना चाहता है कि वह अवैध रूप से यूरोप भेजने वाले एजेंट की फीस दे सके। पुर्तगाल की अना रोचा डिसूजा की फिल्म ‘लिसेन’ लंदन में अवैध आप्रवासी परिवार की त्रासदियों की सच्ची कहानी है।

लंदन के बाहरी इलाके में पुर्तगाल से आए जोटा और उसकी पत्नी बेला शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। उनके तीन बच्चों को सही देखभाल न करने के आरोप में सरकार के सामाजिक सेवा विभाग के अधिकारी उनसे छीन लेते हैं। अब पूरी फिल्म ब्रिटिश कानून की अमानवीय लाल फीता शाही का विवरण है। बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड जीतने वाली बोस्निया की जस्मीला ज्बानिक की फिल्म ‘क्वो वाडिस, आइडा?’ हमें बोस्निया के युद्ध में ले जाती है, जब संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना की निगरानी के बावजूद 1995 में स्रेब्रेनिका शहर में आठ हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। फ्रांस के लाउस ड्रेजेल की विस्मयकारी फिल्म ‘अंडर द स्टार्स आफ पेरिस’ एक नया वृतांत रचती है। पेरिस की जानी-पहचानी रोमांस और रौशनी वाले शहर की छवि के विपरीत एक पेरिस शरणार्थियों और भिखारियों का भी है जो सड़कों पर जीते-मरते हैं। वहीं बुरकिना फासो की एक अवैध आप्रवासी महिला का आठ साल का बच्चा उससे बिछड़ जाता है। एक भिखारिन उसे शरण देती है और ठंड से कांपती हुई पूरी फिल्म पेरिस में उस बच्चे की मां की खोज में चलती है, जिसे पुलिस वापस डिपोर्ट करने वाली है।

अजित राय
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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