मनोरंजन जगत में दो तरह की विचारधाराएं

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मिसाल के तौर पर जयदीप अहलावत। वो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में दर्जनों कलाकारों के बीच नोटिस किए गए। उसके सालों बाद कमांडो में विलेन रहे। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के आठ साल बाद उन्हें स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर ‘पाताललोक’ मिली और वो फिर इस साल छा गए।

ऐसी ही कहानी एक और बेहतरीन अदाकारा रसिका दुग्गल की है। मुख्यधारा में उन्हें धांसू रोल नहीं दिए। पर अब ऐसा हाल है कि कुछ हफ्ते पहले एक ही दिन दो वेब सीरिज़ रिलीज होती हैं- ‘मिर्जापुर 2’ और ‘सूटेबल बॉय’। वो दोनों में हैं। यह स्ट्रीमिंग माध्यमों के चलते मुमकिन हो सका।

जैसे शेफाली शाह बेहतरीन अभिनेत्री हैं, पर अब तक व्यावसायिक फिल्मों में हीरोइनों के लिए बने ढांचे के कारण उन्हें फिल्में कम मिलती थीं। अब ऐसा नहीं है। एक फॉर्मूले में फिट होने की जरूरत नहीं है। इन आधुनिक माध्यमों पर इतनी विविधता भरी कहानियां हैं, जहां हर किसी के लिए मीटी रोल है।

विक्रांत मैसी टीवी से होते हुए ओटीटी पर आए और सीधा छपाक साइन की। कई कलाकार उभरकर आ रहे हैं। अली फजल और दिबयेंदु मिले। अभिषेक बैनर्जी मिले पाताललोक में। मुख्यधारा की सिनेमा में वो बस हीरो के दोस्त बनकर रह गए थे! यह सब बड़ा दिलचस्प विकास हुआ है।

बहरहाल स्ट्रीमिंग पर बहुत अच्छा कंटेंट फिल्ममेकर्स के लिए चैलेंज है। चुनौती है कि वह दर्शकों को घरों से बाहर कैसे लाएंगे। लोगों के पास जब स्ट्रीमिंग के ढेरों विकल्प हैं, तो वो सिनेमाघरों तक कैसे आएंगे। ऐसे में निर्माताओं के पास विकल्प के तौर पर स्टार्स की फिल्में रह जाती हैं। सितारों की मौजूदगी वाली फिल्में देखने पब्लिक बाहर निकल सकती है।

लिहाज़ा फिल्मी सितारों का स्टारडम और मजबूत हो जाएगा। वह इसलिए कि फिल्म निर्माता और डर जाएंगे कि भइया हम दर्शकों को सिनेमाघरों तक कैसे लाएं। बहुत दिनों से लोग सिनेमाघरों में आए नहीं हैं। ऐसे में, एक-एक फिल्म में चलो दो बड़े स्टार्स लेकर आते हैं। नतीजतन अब दो तरह की अलग चीजें होने वाली हैं। नए चेहरे, प्रयोगवादी कहानियां एक तरफ उभर कर आ रही हैं, दूसरी तरफ यह भी विचार है कि सिनेमा खुलते ही सितारा केंद्रित सिनेमा बनाया जाए।

मनोरंजन की पूरी दुनिया द्विध्रुवीय विचारधाराओं के बीच खड़ी है। सवाल है कि आखिरकार दर्शक किस चीज के लिए सिनेमाघरों का रुख करेंगे। ट्रेड जानकार भी यह नहीं समझ पा रहे हैं। मेरी अधिकांश निर्देशकों से बातें हुई हैं। उनका कहना है कि दर्शक बदल गए हैं, उन्हें कुछ अलग चाहिए।

हालांकि अलग तरह का कंटेंट महामारी से पहले भी था। मसलन, ‘बधाई हो’ से लेकर ‘आर्टिकल 15’ बड़ी हिट हुई थी। इन कंटेंट फिल्मों के बारे में मौजूदा धारणा यह भी है कि इन्हें तो दर्शक घरों में भी देख लेगा। ऐसे में जरा भ्रम की स्थिति तो है कि किस तरह की फिल्म की जाए।

शाहरुख खान की बात करें तो उनकी फिल्मों में तीन सालों का अंतराल हो रहा है। अमूमन स्टार्स इतना लंबा गैप नहीं लेते हैं। आमिर भी साल भर का ही गैप लेते हैं। जो सलमान ‘राधे’ कर रहे हैं या ‘लाल सिंह चड्ढा’ तो महामारी से पहले ही वो शुरू थीं।

अब इन सितारों के सामने भी यक्ष प्रश्न है कि जो दर्शक एक साल तक स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर अच्छा कंटेंट देख चुके हैं, उन्हें महामारी के किस तरह की फिल्म की जरूरत है। मेरे ख्याल से दर्शकों की तरफ से इन सितारों से बड़ा सवाल होगा कि उन्हेें बिग स्क्रीन एक्सपीरिएंस वाली फिल्म दी जाए। ऐसे में यह एक चुनौती होगी कि हर फिल्म ‘बाहुबली’ जैसी हो, तो ही वो घर से बाहर निकलेंगे, वरना कंटेंट सेंट्रिक तो वो घर पर ही देख लेंगे।

यह फासला तो पैदा हो चुका है। अब तो यह भी हो चुका है कि ‘बधाई हो’ जैसे मध्यम बजट की फिल्मों के लिए सिनेमा आएंगे कि नहीं। वह इसलिए कि लोगों के पास मनोरंजन के लिए तो बजट कम है। अमेरिका में इवेंट फिल्मों के लिए ही दर्शक सिनेमा में आते हैं। तकनीकी तौर पर उन्हें स्पेक्टेक्ल फिल्में कहते हैं। देखना दिलचस्प होगा कि कोविड-19 के बाद किस तरह के बदलाव आने वाले हैं।

अनुपमा चोपड़ा
(लेखिका फिल्मी मैगजीन की संपादिका हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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