किसानों पर बढ़ता कर्ज चिंताजनक

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अब आगे सवाल यह है कि किस तरह के बदलाव और सुधार वास्तव में जरूरी हैं। विश्व स्तर पर देखें तो हाल के समय में मौजूदा कृषि तकनीकों से जुड़े पर्यावरण विनाश पर चिंता बढ़ गई है। रासायनिक खाद और कीटनाशक रसायनों से मिट्टी के उपजाऊपन पर प्रतिकूल असर पड़ा है। किसान के मित्र सूक्ष्म जीव, केंचुए आदि तेजी से कम हुए हैं और खाद्य चक्र में विषैलापन बढ़ा है। शीर्ष वैज्ञानिकों के अनुसार नाइट्रोजन और फासफोरस का चक्र खतरनाक हदों के बाहर जा रहा है। इसके अतिरिक्त भूजल तेजी से नीचे गया है और गांवों के जल–स्रोत प्रदूषित हुए हैं। अनुचित किस्म के मशीनीकरण और अनुचित फसल चक्रों के कारण प्रदूषण की समस्या कई स्तरों पर बढ़ी है। जलवायु बदलाव के संकट में कृषि कार्यों का योगदान बढ़ा है। इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए कई कृषि विद्वान ऐसे सुधारों की मांग कर रहे हैं जिनसे पर्यावरण रक्षा और किसानों के आर्थिक संकट को दूर करने के उद्देश्य एक साथ प्राप्त किए जा सकें। अनेक स्थानों पर प्रयोगों से इसके उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए हैं। किसानों के अनावश्यक खर्चों को कम किया गया और साथ में पर्यावरण रक्षा के उद्देश्य प्राप्त किए गए। उदाहरण के लिए यूबा में वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में सब्जियों का उत्पादन 145 प्रतिशत रहा जबकि कृषि रसायनों की खपत में 72 प्रतिशत कमी लाई जा सकी। इस तरह के अनेक अन्य अपेक्षाकृत छोटे प्रयोग भी देखे गए हैं जहां रासायनिक खाद और कीट/खरपतवार नाशक रसायनों का उपयोग करते हुए भी कृषि उत्पादन पहले जितना बनाए रखा गया या उसमें वृद्धि भी प्राप्त की गई। जरूरी बात है कि यदि खर्च भी कम होगा और उत्पादन भी बढ़ेगा तो किसान की आर्थिक स्थिति सुधरेगी।

इसके अलावा यदि रासायनिक खाद और कीट/खर-पतवार नाशकों का उपयोग कम हो रहा है तो पर्यावरण में सुधार होगा और भूमि का प्राकृतिक उपजाऊपन बढ़ेगा। इस तरह टिकाऊ विकास यानी सस्टेनेबल डिवेलपमेंट की बुनियाद मजबूत होगी। इस तरह के विकास के लिए एग्रो इकॉलजी की सोच सबसे सहायक होगी। इस सोच के अंतर्गत किसी भी स्थान की प्राकृतिक प्रक्रियाओं की बहुत रचनात्मक व गहन समझ बनाई जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि किन प्राकृतिक प्रक्रियाओं से हरियाली बढ़ती है, मिट्टी को सहज ढंग से पोषण प्राप्त होता है और एक प्रक्रिया के अवशेष दूसरी प्रक्रिया के सहायक बनते हैं। इस समझ के आधार पर कृषि का विकास इस तरह होता है कि इससे प्राकृतिक प्रक्रियाओं में विघ्न न पड़े, अपितु इसके लिए बेहतर अवसर उत्पन्न किए जाएं। फसलचक्र, मिश्रित खेती, पशुपालन और कृषि के मिलन, स्थानीय अवशेषों से खाद निर्माण ऐसे तरीके हैं जो स्थानीय पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर खेती को लाभदायक बनाने में मदद करते हैं। ऐसे ही प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा हानिकारक कीड़ों और जंतुओं को दूर करने का इंतजाम किया जाता है। इसमें मेहनत, समझ और रचनात्मकता अधिक है पर खर्च कम है।

इस तरह एग्रो इकॉलजी छोटे किसानों और महिलाओं के अधिक अनुकूल है और स्कूली बच्चों को इससे विज्ञान की बहुत अच्छी शिक्षा गांव स्तर पर ही मिल सकती है। यह सोच छोटे किसानों के बहुत अनुकूल है। यदि भूमिहीनों को थोड़ी सी भूमि भी मिलेगी तो वे इस तरह की खेती से अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए सभी मूल ग्रामीण परिवारों के लिए एक न्यूनतम कृषि-भूमि की व्यवस्था की ओर धीरे-धीरे बढऩा चाहिए। इस रास्ते सबसे निर्धन गांववासियों की खाद्य सुरक्षा और पूरे देश की खाद्य सुरक्षा की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हो सकेगी। सरकार की भूमिका मुय रूप से उन सभी किसान परिवारों को सहायता देने की होनी चाहिए जो पर्यावरण आधारित खेती अपनाते हैं। सरकार इन सभी परिवारों को एक निश्चित राशि की मदद दे सकती है और प्रतिकूल मौसम वाले साल में इसे बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन किसानों की उपज की एक निश्चित मात्रा वह न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर स्थानीय पोषण कार्यक्रम और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए खरीद सकती है। इस तरह किसानों का संकट दूर करने, पर्यावरण की रक्षा करने, खाद्यों की गुणवत्ता सुधारने और स्वास्थ्य बेहतर करने जैसे सभी उद्देश्य एक साथ प्राप्त हो सकेंगे।

(लेखक भारत डोगरा वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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