कश्मीर की छह प्रमुख पार्टियों ने कल यह तय किया कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख की जो हैसियत 5 अगस्त 2019 के पहले थी, उसकी वापसी के लिए वे मिलकर संघर्ष करेंगे। इस संघर्ष का निर्णय 4 अगस्त 2020 को हुआ था, जिसे गुपकार घोषणा कहा जाता है। इस संघर्ष के लिए उन्होंने नया गठबंधन बनाया है, जिसे ‘पीपल्स एलायंस’ या जनमोर्चा नाम दिया गया है। जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस पार्टी के नेता किसी निजी कारण से इस जनमोर्चा की बैठक में हाजिर नहीं हो सके। वैसे कांग्रेस ने भी गुपकार-घोषणा का समर्थन किया था।
यहां मुख्य प्रश्न यही है कि अब कश्मीर में क्या होगा ? क्या वहां कोई बड़ा जन-आंदोलन खड़ा हो जाएगा या हिंसा की आग भड़क उठेगी? हिंसा पर तो हमारी फौज काबू कर लेगी। तो क्या भारत सरकार धारा 370 और 35 को वापिस ले आएगी ? मुझे लगता है कि यदि मोदी सरकार ऐसा करेगी तो उसका जनाधार खिसक जाएगा। वह खोखली हो जाएगी। हां, वह यह तो कर सकती है कि आंदोलनकारी नेताओं की साख बनाए रखने के लिए जम्मू-कश्मीर को फिर से राज्य का दर्जा दे दे, जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह ने भी संसद में संकेत दिया था। नेताओं को क्या चाहिए ? सत्ता और सिर्फ सत्ता ! उसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी ने किस-किस से हाथ नहीं मिलाया ? कांग्रेस से और भाजपा से भी। उन्होंने एक-दूसरे के विरुद्ध आग उगलने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। अब दोनों की गल-मिलव्वल पर क्या कश्मीरी लोग हंसेगे नहीं ? यदि राज्य का दर्जा फिर से घोषित हो गया तो इन नेताओं की सारी हवा निकल जाएगी। यों भी धारा 370 के प्रावधानों में पिछली कांग्रेसी सरकारों ने इतने अधिक व्यावहारिक संशोधन कर दिए थे कि कश्मीर की स्वायत्ता सिर्फ नाम की रह गई थी।
इन नेताओं को सत्ता का और खुली लूट-पाट का मौका क्या मिलेगा, ये कश्मीर की मूल समस्या को दरी के नीचे सरका देंगे। 73 साल से चला आ रहा तनाव बना रहेगा और कश्मीर समस्या के दम पर पाकिस्तान की फौज असहाय पाकिस्तानियों की छाती पर सवारी करती रहेगी। इस समय जरुरी है कि मोदी और इमरान मिलकर कश्मीर पर बात करें और इस बात में हमारे और पाकिस्तानी कश्मीरियों को भी शामिल करें। अटलजी और डाॅ. मनमोहनसिंह ने जनरल मुशर्रफ के साथ जो प्रक्रिया शुरु की थी, उसे आगे बढ़ाया जाए। डर यही है कि हमारी सरकार के पास दूरदृष्टिपूर्ण नेता नहीं हैं। वह नौकरशाहों पर उसी तरह निर्भर है, जैसे पाकिस्तानी नेता उनके फौजी जनरलों पर निर्भर हैं।