फिर नदियां कैसे हुईं इतनी मैली ?

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कोरोना महामारी ने विध्वंस और निराशा की जो जटिल परत चढ़ा दी है, उससे उबरने में अभी वक्त लगेगा। लेकिन इस दौरान कुछ ऐसा भी हुआ जिस पर संतोष किया जा सकता है। वह है, पर्यावरण में आया बदलाव। जब कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया और तमाम औद्योगिक इकाइयों की बंदी रही तो इसका स्वाभाविक असर यह हुआ कि पर्यावरण पहले की अपेक्षा थोड़ा स्वच्छ हो गया। खासकर स्वच्छ हवा के संदर्भ में यह परिवर्तन सबसे सुखद रहा। हालांकि यह भी एक सामान्य परिघटना नहीं बन सका, क्योंकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि लॉकडाउन के दौरान भी कुछ नदियां पहले से अधिक प्रदूषित हो गईं। इतनी सफाई के बाद भी गंगा कैसे रह गई मैली : केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से यह निवेदन किया था कि वह लॉकडाउन के पहले और लॉकडाउन के दौरान नदी जल की शुद्धता का तुलनात्मक अध्ययन करें। इस प्रकार 20 राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों ने कुल 19 नदियों पर अध्ययन किया। नदी जल की गुणवत्ता नापने के लिए कुल चार मानकों पीएच, घुलित ऑक्सीजन, जैविक ऑक्सीजन मांग और फीकल कॉलिफॉर्म को आधार बनाया गया।

आसान भाषा में इन मानकों को समझें तो पीएच मानक किसी भी जल के अम्लीय या क्षारीय होने को दर्शाता है। एक सीमा से अधिक अम्लीय या क्षारीय जल इसके प्रदूषित होने का सूचक है। घुलित ऑक्सीजन का अर्थ किसी जल में उपस्थित ऑक्सीजन की मात्रा से है। इसका कम होना जलीय जीवों के समक्ष गंभीर खतरा उत्पन्न करता है। जैविक ऑक्सीजन मांग का तात्पर्य सूक्ष्मजीवों के जल में व्याप्त ऑक्सीजन के उपयोग से है। इसकी वृद्धि से मतलब है, जल में सूक्ष्मजीवों का बढ़ना। अंतिम मानक फीकल कॉलिफॉर्म को सरलतम रूप में कहें तो यह किसी भी जलाशय में अशोधित जल या सीवेज प्रवाह के अनुपात को बताता है। इसकी वृद्धि जल को अधिक रोग सुभेद्य बना देती है। लॉकडाउन के पूर्व यानी मार्च 2020 में इन्हीं नदियों के कुल 387 नमूनों की जांच की गई थी जिनमें 299 तय मानकों के अनुकूल थे। वहीं लॉकडाउन के दौरान, यानी अप्रैल 2020 में इन्हीं नदियों के कुल 365 नमूनों की जांच की गई जिनमें 277 ही तय मानकों के अनुकूल पाई गईं। हालांकि यह एक औसत अध्ययन है जिसका अर्थ है कि कुछ नदियों की गुणवत्ता में सुधार हुआ, कुछ यथावत रहीं और कुछ की गुणवत्ता में गिरावट आई। आखिर ऐसे क्या कारण रहे कि कुछ नदियों का जल इस दौरान और अधिक प्रदूषित हो गया?

इन 19 नदियों में कुल पांच ब्यास, चंबल, गंगा, सतलज और स्वर्णरेखा ऐसी नदियां हैं, जिनके जल की गुणवत्ता और खराब हुई। इनमें भी चंबल, स्वर्णरेखा और गंगा के जल में क्रमश: 28.5, 26.67 और 18.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। इस अध्ययन में नदियों के जल के अधिक प्रदूषित होने के कुछ कारणों की ओर संकेत किया गया है। इस दौरान इन नदियों में अंशत: बिना ट्रीट किए गए पानी को सीवेज में छोड़ा गया। दूसरा प्रमुख कारण प्रदूषकों के संकेंद्रण का उच्चतम स्तर पर पहुंच जाना रहा और तीसरी वजह यह रही कि इस दौरान नदी को अपस्ट्रीम के कारण ताजे जल की प्राप्ति नहीं हो सकी। ये आंकड़े इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त हैं कि जितने जोर-शोर से नदियों को साफ करने का सरकारी दावा किया जाता है, हकीकत उससे मेल नहीं खाती।

इससे निराशाजनक बात क्या हो सकती है कि जब उद्योगों का संचालन नहीं हो रहा था तब भी गंगा गंदी हो रही थी। यह अध्ययन एक चेतावनी भी है कि अगर हम अब भी नहीं चेते तो हमें अपनी सदानीरा नदियों से हाथ धोना पड़ जाएगा। यहां पानी के महत्त्व को नई भाषा देने वाले अनुपम मिश्र याद आते हैं और तालाब की बर्बादी पर उनका कथन याद आता है कि सैंकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई-दहाई मिलकर सैंकड़ा-हजार बनती थी। पिछले दो सौ बरस में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने उस इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हजार को शून्य ही बना दिया।

सन्नी कुमार
(लेखक फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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