एमएसपी के पांच सच

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केंद्र सरकार के तीन किसान विरोधी कानूनों के चलते किसान के गुस्से का लावा फिर फूट पड़ा है। लेकिन सरकार मासूमियत से पूछती है: आप नाराज क्यों हैं? एमएसपी की व्यवस्था जस की तस है। उसे हमने छुआ ही नहीं है। पत्रकार पूछते हैं: अगर सरकार एमएसपी हटा नहीं रही तो किसान परेशान क्यों हैं? एमएसपी के बारे में सरकारें पाखंड करती हैं, और जनता दिग्भ्रमित रहती है। इससे किसान लुटता रहता है। दरअसल साठ के दशक में जब देश में कृषि में हरित क्रांति की शुरुआत हुई तब सरकार को महसूस हुआ की किसान नए किस्म की खेती तब तक नहीं करेंगे जब तक उन्हें इसमें सही दाम मिलने का भरोसा ना हो। इसलिए सरकार ने बुवाई से पहले सरकारी दाम की घोषणा करनी शुरू की। इसे ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ या मिनिमम सपोर्ट प्राइस कहा जाने लगा।

साधारण किसान इसे फसल खरीद के सरकारी रेट के रूप में जानता है। पिछले 50 साल से खरीफ और रबी की फसल की बुवाई से कुछ हफ्ते पहले सरकार आने वाली फसल के लिए 23 उत्पादों की एमएसपी की घोषणा करती है। मोदी सरकार के आने के बाद बाकी सब चीजों की तरह इसे हर बार गाजे-बाजे के साथ ऐसे पेश किया जाता है मानो इतिहास में पहली बार यह घोषणा हुई हो।

एमएसपी फसल का वाजिब दाम नहीं है एमएसपी के बारे में पहला सच यह है कि यह किसान की फसल का वाजिब दाम नहीं है। जैसे सरकार स्वयं कहती है, यह न्यूनतम मूल्य है। किसान को मेहनत का जितना कम से कम मेहनताना मिलना ही चाहिए, उसका सूचकांक है। यह देश का दुर्भाग्य है कि यह न्यूनतम भी किसान के लिए एक सपना बन गया है।

दूसरा सच यह है कि इस न्यूनतम दाम की गिनती भी ठीक ढंग से नहीं होती। आज से 15 साल पहले स्वामीनाथन आयोग ने एमएसपी की सही गिनती का फार्मूला बताया था। आयोग का सुझाव था कि किसी किसान की संपूर्ण लागत पर 50% बचत जोड़कर एमएसपी तय होनी चाहिए। यानी कि अगर गेहूं की लागत ₹1600 प्रति क्विंटल है तो उसकी एमएसपी ₹2400 प्रति क्विंटल होनी चाहिए।

कांग्रेस सरकारों ने इस सिफारिश को नजरअंदाज कर दिया। बीजेपी ने इसे लागू करने के नाम पर डंडी मार दी। संपूर्ण लागत की बजाय आंशिक लागत को पैमाना बनाकर उसका ड्योढ़ा घोषित कर दिया। देशभर के किसान आंदोलनों ने बीजेपी के इस फॉर्मूले को खारिज कर दिया। तीसरा सच यह है कि यह एमएसपी भी देश के अधिकांश किसानों को नसीब नहीं होती। सरकार सिर्फ 23 फसलों में एमएसपी घोषित करती है। फल सब्जियों की एमएसपी घोषित ही नहीं होती। घोषणा के बाद सरकार सिर्फ दो-ढाई फसल में सचमुच न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देती है।

राशन के दुकान में देने के लिए गेहूं और धान की खरीददारी करती है सरकार गेहूं और धान की खरीद सरकार इसलिए नहीं करती है कि किसान को दाम मिले, बल्कि इसलिए कि सरकार को राशन की दुकान में गेहूं-चावल देना है। इनके अलावा देश के विभिन्न इलाकों में एकाध फसल की कुछ अच्छी खरीद हो जाती है, वह भी किसान आंदोलन के बाद। सात साल पहले शांताकुमार समिति का अनुमान था कि देश के केवल 6% किसानों को ही एमएसपी मिल पाती है।

आज वास्तविक आंकड़ा 15- 20% होगा। जहां सरकारी खरीद होती भी है वहां कई पेंच हैं। किसान सरकारी पोर्टल पर रजिस्टर करे, कागज दाखिल करे, फसल की गुणवत्ता साबित करे। सरकार ने अधिकतम पैदावार की सीमा भी बांध रखी है। अगर खरीद हो गई तो पेमेंट देर में होता है। झक मारकर किसान कम दाम में आढती को बेचकर जान छुड़ाता है। चौथा सच यह है कि इस आधी अधूरी व्यवस्था को भी खतरा है। मोदी सरकार शुरू से ही एमएसपी से पिंड छुड़ाने के चक्कर में है। 2015 में शांताकुमार कमेटी सिफारिश कर चुकी है कि एफसीआई को सरकारी खरीद बंद कर देनी चाहिए।

पिछले साल सरकार लिखकर हरियाणा व पंजाब को कह चुकी है कि उन्हें गेहूं व चावल की सरकारी खरीद कम करनी चाहिए। इस साल पहली बार धान की खरीद पर प्रति एकड़ अधिकतम सीमा बांधी गई है। इसलिए किसान को पहले से शक था कि एमएसपी को खतरा है। इन तीन कानूनों से खतरा और बढ़ गया है। पांचवां बड़ा सच यह है कि सरकार चाहे तो इस व्यवस्था को दुरुस्त कर सकती है। किसान आंदोलन की मांग है कि सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा दे। यानी कि कॉन्ट्रैक्ट खेती और सरकारी मंडी के कानूनों में यह लिख दिया जाए कि कोई भी खरीद एमएसपी से नीचे मान्य नहीं होगी।

योगेन्द्र यादव
(लेखक सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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