मानवाधिकारों की चिंता कौन करेगा?

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तो आखिरकार एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भारत में अपना कार्यालय बंद कर दिया। ऐसा लग रहा है कि इसे बंद कराने के चार साल से चल रहे प्रयास सफल हो गए हैं। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले इस अंतरराष्ट्रीय संगठन ने अपने बयान में कहा है कि यह अनायास नहीं हुआ है। उसने कहा है कि सरकार विच-हंट कर रही थी यानी हाथ धोकर पीछे पड़ी थी कि कैसे इस संगठन की गतिविधियां बंद हों और इसके कार्यालय पर ताला लगे। एमनेस्टी इंटनरेशनल इंडिया के साथ जुड़े रहे आकार पटेल ने पिछले चार साल की जो क्रोनोलॉजी बताई है उसे देखें तो यह बात आसानी से समझ में आती है।

सबसे पहले 2016 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ओर से इसके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कराया गया था। पुलिस ने इसकी जांच की और कहा कि कोई सबूत नहीं है। अदालत ने मामले को खारिज कर दिया। इसके बाद 2018 में प्रवर्तन निदेशालय ने छापा मारा और संगठन के सारे खाते सील कर दिए। बाद में हाई कोर्ट ने खातों पर से रोक हटाई। उसी साल गृह मंत्रालय ने भी छानबीन की और कंपनी मामलों के मंत्रालय ने भी जांच की। इसके अगले साल 2019 में सीबीआई ने छापा मारा। लगातार हो रही कार्रवाई और खाते सील होने की वजह से इस संगठन के सामने अपना कामकाज बंद करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा।

सवाल है कि क्या यह सिर्फ एक संस्था के खिलाफ चार साल तक चले अभियान और अंततः उसके बंद होने का मामला है? नहीं! यह एक उदार और लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत के लगातार कमजोर होते जाने का संकेत है। यह लोकतंत्र के सभी स्तभों को क्रमशः कमजोर करने के निरंतर हो रहे प्रयासों की सफलता का संकेत है। एक उदार लोकतांत्रिक देश के नाते दुनिया में भारत का सम्मान इसलिए है क्योंकि यहां लोकतंत्र की संस्थाएं खास कर मीडिया और गैर सरकारी संगठन स्वतंत्र रूप से काम करते रहे हैं। संविधान के किसी प्रावधान के तहत मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं बनाया गया है, अपनी ऐतिहासिक भूमिका के कारण मीडिया को यह जगह मिली है। उसी तरह से अपने कामकाज की वजह से गैर सरकारी संगठनों ने लोकतंत्र के पांचवें स्तंभ के तौर पर अपनी जगह बनाई है।

मीडिया और गैर सरकारी संगठनों ने उदार लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की छवि मजबूत की और इसकी विशाल आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने की जिम्मेदारी निभाई है। जहां सरकार नहीं पहुंच सकी वहां भी मीडिया और गैर सरकारी संगठन पहुंचे। यह सही है कि मानवाधिकार की अवधारणा भारत और लगभग समूचे एशिया के लिए नई चीज है। ज्यादातर एशियाई देश इसे पश्चिमी अवधारणा मानते हैं। इसके बावजूद मीडिया और गैर सरकारी संगठनों ने खास कर मानवाधिकार के लिए काम करने वाले संगठनों ने हाशिए पर के करोड़ों लोगों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक किया और यह कहने में हिचक नहीं है कि उनके लिए न्यूनतम मानवीय जीवन स्तर सुनिश्चित कराने में बड़ी भूमिका निभाई।

अफसोस की बात है कि पिछले कुछ समय से मीडिया और गैर-सरकारी संगठन दोनों निशाने पर हैं। देश के कुछ बेहतरीन सामाजिक कार्यकर्ता अपनी प्रतिबद्धताओं की वजह से जेल में बंद हैं और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था को मजबूरी में अपना कामकाज बंद करना पड़ रहा है। यह तथ्य है कि भारत सरकार ने पिछले तीन साल में 66 सौ गैर सरकारी संस्थाओं को विदेशी चंदा लेने के लिए मिला लाइसेंस रद्द किया है। सरकार ने इस साल बजट सत्र के दौरान संसद में बताया कि चार हजार से ज्यादा शैक्षिक संस्थाओं, ढाई हजार से ज्यादा सांस्कृतिक और नौ सौ धार्मिक संस्थाओं का एफसीआरए निरस्त किया गया है। हो सकता है कि इनमें से कुछ संस्थाओं के कामकाज संदिग्ध हों, कुछ संस्थाओं में वित्तीय हेराफेरी भी होती हो परंतु इतने बड़े पैमाने पर संस्थाओं के खिलाफ कार्रवाई को सामान्य नहीं माना जा सकता है।

यह हकीकत है कि पिछले कुछ समय से सरकार का विरोध करने वाले, सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने वाले, उसे कठघरे में खड़ा करने वाले या हाशिए पर के समूहों के अधिकारों की आवाज उठाने वाले लोग व संस्थाएं निशाने पर हैं। योजनाबद्ध तरीके से असहमति को प्रकट होने से रोकने की कोशिश हो रही है और प्रतिरोध के हर तरीके को अपराध बनाने का प्रयास किया जा रहा है। यह इसी योजना का हिस्सा है, जो संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन के दौरान प्रदर्शनों में शामिल रहे प्रबुद्ध नागरिकों और सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को दिल्ली दंगे में घसीटने का प्रयास हुआ। सीताराम येचुरी से लेकर योगेंद्र यादव, प्रोफेसर जयति घोष, प्रोफेसर अपूर्वानंद आदि को एक आरोपी के कथित बयान के आधार पर दंगों का आरोपी बनाने का प्रयास हुआ। यह अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की कोशिशों का एक नमूना है।

ऐसे ही उपायों के जरिए देश के कुछ बेहतरीन सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करके रखा गया है। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले पीयूसीएल से जुड़े रहे गौतम नवलखा और छत्तीसगढ़ से लेकर फरीदाबाद तक मजदूरों के हितों की लड़ाई लड़ने वाली सुधा भारद्वाज जेल में हैं। वर्नेन गोंसाल्वेज, वरवर राव, आनंद तेलतुम्बडे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता लंबे समय से जेल में बंद हैं। उम्रदराज और बीमार होने के बावजूद उन्हें जमानत नहीं मिल रही है। उन्हें भीमा कोरेगांव की हिंसा के मामले में गिरफ्तार करके जेल में रखा गया है। नागरिकता कानून का विरोध करने वाले सार्वजनिक बुद्धिजीवियों पर दंगे भड़काने के आरोप लगाने का मकसद भी यहीं है कि उन्हें चुप कराया जा सके। उनकी आवाज खामोश की जा सके।

यह एक सोची समझी योजना का हिस्सा है। इसी योजना की ही एक कड़ी एमनेस्टी इंटरनेशनल का बंद होना है। सत्ता में बैठे लोगों को लग रहा है कि आखिर इस संस्था ने कैसे दिल्ली दंगों को लेकर सरकार और पुलिस की मंशा पर सवाल उठाने की हिम्मत की! कैसे इसने जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार के हनन का मुद्दा उठाया! कैसे नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया! सरकार को लगता है कि अगर ऐसे विरोध और ऐसी आवाजों को गूंजते रहने की इजाजत दी गई तो संविधान और लोकतंत्र भले मजबूत हों पर सरकार की नींव हिलेगी। असल में स्वतंत्र और प्रतिबद्ध संस्थाएं जहां भी हैं वहां की सरकारों को इस तरह के डर सताते रहते हैं, भारत सरकार अपवाद नहीं है।

एमनेस्टी ने जब श्रीलंका में तमिलों के नरसंहार का मुद्दा उठाया और सरकार को कठघरे में खड़ा किया तो वहां की सरकार ने भी इसके खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी थी। नेपाल से लेकर ईरान, चीन, वियतनाम, रूस जैसे अनेक देशों में इसे बड़ा विरोध झेलना पड़ा है। इसे पश्चिमी देशों के लिए काम करने वाला संगठन बताया जाता है पर इसी ने ग्वानटानामो बे में संदिग्ध आतंकवादियों को रखने और उन्हें यंत्रणा दिए जाने का खुलासा किया और कहा कि यह कम्युनिस्ट शासकों के ‘गुलग’ की तरह है तो अमेरिका में भी इसे विरोध झेलना पड़ा था। जब इसने गर्भपात के अधिकार का मुद्दा उठाया तो दुनिया में सबसे मजबूत मानी जाने वाली संस्था कैथोलिक चर्च ने भी इसका जबरदस्त विरोध किया, खास कर कैथोलिक ईसाई बहुल देशों में। दुनिया के अनेक देश इस पर एकतरफा रिपोर्टिंग करने या राजनीतिक रूप से खास रूझान रखने के आरोप लगाते रहे हैं, इसके बावजूद इसका कामकाज चलता रहा है। भारत से पहले रूस एकमात्र देश है, जहां एमनेस्टी इंटरनेशनल को अपना कार्यालय बंद करना पड़ा था। रूस के चार साल बाद भारत में इसका कार्यालय बंद हुआ है। क्या इससे आगे का कुछ संकेत मिलता है?

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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