मजदूरों के शोषण की किसी खबर को पढ़ते वत अगर यह भुला दिया जाए कि वो खबर कहां की है, तो फिर उसे कहीं का भी समझा जा सकता है। कहने का मतलब यह कि मजदूर चाहे जहां भी हों, उनकी कहानी एक जैसी है। अभी हाल में मीडिया रिपोर्ट में श्रीलंका के चाय बगानों में काम करने वाले मजदूरों की दर्दनाक कहानी सामने आई। मगर ऐसी कहानियां अपने देश में भी कम नहीं हैं। वैसे भी वहां काम करने वाले ज्यादा मजदूर भारतीय तमिलों वंशज हैं। वो श्रीलंका के चाय बागानों में लंबे समय से काम कर रहे हैं। लेकिन आज भी वे श्रीलंकाई समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं। ज्यादातर महिलाएं पीढिय़ों से चाय की पात्तियां तोडऩे का काम करती रही हैं। श्रीलंका के चाय उद्योग में पांच लाख महिलाएं काम करती हैं। इनमें ज्यादातर का संबंध उन भारतीय तमिल परिवारों से है, जिन्हें 1820 के दशक में काम करने के लिए भारत से ब्रिटिश सिलोन में लाया गया था। श्रीलंका में जब कॉफी की खेती नाकाम हो गई, तो अंग्रेजों ने चाय की खेती शुरू की। इस उद्योग को चलाने के लिए बागान मालिकों को बहुत से सारे लोगों की जरूरत थी।
तब आज के तमिलनाडु से यहां लोगों को लाया गया। ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामी प्रथा गैर-कानूनी थी, लेकिन उस वक्त इन कामगारों को कोई पैसा नहीं दिया जाता था और वे पूरी तरह बागान मालिकों के रहमो करम पर थे। जब ये लोग यहां आए, तो कर्ज में दबे हुए थे, योंकि यहां आने की यात्रा का खर्च उन्हें खुद उठाना पड़ा था। 1922 में जाकर नियमों को बदला गया। उसके बावजूद कामगार बेहद दयनीय परिस्थितियों में रहे। उनकी बस्तियों में कोई साफ सफाई नहीं थी, पीने का साफ पानी भी नहीं था और ना ही चिकित्सा सुविधा या बच्चों के लिए स्कूल थे। बहुत मुश्किल हालात में उन्होंने काम किया। जब 1948 में श्रीलंका आजाद हुआ तो चाय कामगारों को कानूनी तौर पर अस्थायी आप्रवासी का दर्जा दिया गया। लेकिन नागरिकता नहीं दी गई। 1980 के दशक में श्रीलंका में 200 साल से ज्यादा रहने के बाद भारतीय तमिलों के वंशजों को नागरिकता का अधिकार दिया गया। लेकिन अब भी वे श्रीलंका में सबसे पिछड़े और गरीब तबकों में गिने जाते हैं। इसलिए कि उन्हें कम मेहताने पर कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।
यही कहानी भारत की है। भारत के दस करोड़ प्रवासी मजदूर लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों में शामिल हैं। महीनों तक गांव में रहने के बाद लोगों का कहना है कि शहर से उनकी कंपनी या फिर फैटरी मालिकों ने उन्हें लेने के लिए बसें भेजी हैं। लेकिन बहुत से लोग अब भी अपने गांव में बेकार बैठे हैं। लॉकडाउन के कारण भारत की अर्थव्यवस्था सिकुड़ी है। आने वाले दिन और भी मुश्किल हो सकते हैं, क्योंकि भारत में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। पीपुल्स एशन ऑफ एंप्लॉयमेंट गारंटी नाम की संस्था ने हाल में कहा कि काम ना मिलने की खाई उससे कहीं बड़ी है जितना आंकड़ों में दिखाया जाता है। इसकी वजह यह है कि एक दिन काम मिलने को भी काम मुहैया कराए जाने के तौर पर दर्ज किया जाता है। राज्यों के अधिकारियों का कहना है कि रोजगार के लिए ऐसे काम तलाशे जा रहे हैं। लेकिन यह भी एक सच है कि प्रवासी मजदूरों में ज्यादातर दक्ष कारीगर हैं जो हर दिन 500 रुपया कमा रहे थे। अब उन्हें 220 रुपए में काम करना पड़ रहा है। फिर भी ये एक मरहम है। ये जारी रहे, इसका इंतजाम सरकार को करना चाहिए।