मंद-कुंद-बेबस बुद्धि में दस बहाने !

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लाख टके का सवाल है कि पृथ्वी की तमाम नस्लों में हिंदू क्यों सर्वाधिक गुलाम रहा? क्यों सर्वाधिक लुटा-पिटा? क्यों दुनिया के तमाम आतातायी, लुटरे भारत आते रहे और भारत में ऐसा बहादुर क्यों नहीं पैदा हुआ जो तलवार ले कर खैबर पार, मध्य एशिया, चीन, यूरोप गया? ऐसे सवाल, ऐसी बातें हिंदू दिमाग, बुद्धि में नहीं आतीं! उसके चेतन, अवचेतन में, उसके मूल रसायन में गुलामी के अनुभव हैं। इसलिए न निडरता से सोच सकता है और न इतिहास के सबक से बेखौफ फैसले ले सकता है। आजादी बाद के इंदिरा गांधी के एक अनुभव (बाग्लांदेश परिस्थितिजन्य) को दरकिनार कर यदि सोचें तो परमाणु ताकत, भू-राजनीतिक-सामरिक जरूरत के बावजूद भारत के प्रधानमंत्रियों में हिम्मत नहीं हुई जो दुनिया के चाहने के बावजूद अफगानिस्तान में सेना उतारने का फैसला करते। ऐसा मालदीव के मामले में अनुभव रहा तो नेपाल में भी। श्रीलंका में कोशिश हुई लेकिन ऐसा बलंडर हुआ, जिससे सिंहली बिगड़े तो तमिल भी। तभी लगभग पूरे पड़ोस में इन दिनों चीन की तूती है। यह सब क्यों?

इसलिए क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री, मंत्री, अफसर हों या आम हिंदू, सभी की बुद्धि में भय, खौफजनित इतने किंतु-परंतु हैं, इतनी सावधानियां, इतने बहाने, इतने कुतर्क, इतनी खामोख्याली, इतने डर, इतनी लाचारी और बेबसी है कि ज्योंहि कोई मामला आया, विचार करने बैठे तो आम राय बनेगी कहीं फंस न जाएं, मध्य मार्ग अपनाओ! या अपन अपने कुएं में भले!

यह सोच हजार साला लुटाई-पिटाई-गुलामी और हाकिमशाही में जीवन जीने से दिमाग में जहां पैठी हुई है वहीं उस पर कोई इंजेक्शन, दवा, तर्क इसलिए काम नहीं करता है क्योंकि धर्म ने हमें नियति, भाग्य की लीला में बांधा हुआ है। मैं हिंदू धर्म और उसके काल खंडों पर अपनी विहंगम दृष्टि में बूझता हूं कि सनातनी हिंदुओं के सतयुग में आदि हिंदुओं का जीना भले सत्यवादी, कर्मवादी रहा हो लेकिन बाद के त्रेता, द्वापर युगों में रामजी की गाथा नियति, भाग्य में रची-बनी हुई है तो श्री कृष्ण के कर्मवादी आख्यान के बावजूद महाभारत भी भाग्य-नियति-निस्सार सांसारिकता का महाग्रंथ है। भाग्य में जो लिखा है, वहीं होगा और जन्म के साथ ही जब नियति है तो फिर हमारे बस में क्या है, का फलसफा भारतीय उपमहाद्वीप की वह तासीर है, जिसमें समर्पण, सरेंडर, गुलामी, लाचारी, बेबसी सब नियति में निहित है। दुनिया के बाकी धर्मावलंबी भी अपने-अपने भगवान के अनुयायी, उनकी वजह से अपने को मानते हैं, उनके कहे अनुसार जीवन जीते हैं लेकिन हिंदू अपने भगवान, अपने मंदिर की आराधना के साथ भाग्य और नियति में जैसे व्यवहार बनाए रहता है वह बेजोड़ मामला है। दुनिया की किसी कौम, किसी नस्ल, किसी देश में यह नहीं हुआ होगा कि कोई प्रधानमंत्री कहे कि मेरे भाग्य से पेट्रोल-डीजल के दाम घटना है तो है। और यह सुन हिंदू बुद्धि ने दबाकर तालियां बजाईं!

हिंदू राजा हो या हिंदू प्रधानमंत्री या हिंदू हाकिम, हिंदू नागरिक मतलब शासक और शासित सब जब वक्त को नियति, ग्रह की चालों का परिणाम माने हुए हैं तो हिंदू इतिहास का सर्वकालिक बहाना है कि भाग्य में गुलामी लिखी थी तो क्या करें! राहु की नीच दशा है शनि की साढ़े साती है, कलियुग है, सदियां ही सदियां अधिमास में गुजरीं तो बाबर हारे हों या अंग्रेजों से या चीन से हमारे पृथ्वीराज क्या कर सकते हैं, हमारे नरेंद्र मोदी क्या कर सकते हैं? सब कुछ ग्रह दशा और नियति से है!

सोचें, हिंदू दिमाग, मष्तिष्क, ब्रेन ने कितना आसान, सहज, कालजयी बहाना बनाया हुआ है! तभी आश्चर्य नहीं कि 21वीं सदी में कोरोना वायरस की महामारी के वक्त में भारत का प्रधानमंत्री और भारत के हिंदू एकमत, एक राय में वायरस को भाग्य, नियति की मार माने रामभरोसे हैं। हम क्या कर सकते हैं? सरकार क्या कर सकती है? मरना है तो मरेंगे, सरकार क्या कर सकती है। भाग्य में लिखा था जो मर गए। भाग्य ने चाहा तो बच जाएंगे नहीं तो परिजन याद करेगा कि महामारी काल में हमारा भी कोई मरा था।

सो, नियति, ग्रह-नक्षत्रों की चाल हिंदू बुद्धि का वह बहाना, वह विचार है, जिससे सब कुछ बरदाश्त। दशा-दिशा, काम, कर्तव्य, जिम्मेवारी और वक्त सबसे मुक्ति।

जाहिर है, नोट करके रखें कि हिंदू के दिमाग, ब्रेन का नंबर एक बहाना, उसकी अचैतन्यता की नंबर एक वजह नियति और भाग्य है! हमें सोचने, विचारने, हिम्मत जुटाने, लड़ने, निडर-निर्भीक होने की जरूरत ही क्या है जब भाग्य में यहीं लिखा हुआ है। नरेंद्र मोदी भाग्य हैं तो हैं हमें क्या करना। वे जैसे चाहेंगे रह लेंगे। वे जैसे कहेंगे सोच लेंगे। नियति, भाग्य के साथ धर्म ने हिंदुओं को पढ़ाया-समझाया हुआ है कि राजा भगवान विष्णु के अवतार होते हैं। सो, भला उन पर सवाल, उनकी बुद्धि पर विचार, उनके खिलाफ विद्रोह, क्रांति की धृष्टता हिंदू क्यों और कैसे कर सकता है!

तीसरी बात हजार साल की गुलामी के डंडों की इतिहासजन्य मार हिंदू दिमाग की तंत्रिकाओं में स्थायी तौर पर छपी हुई, अंकित है। तभी मालिक, बादशाह, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, एमपी, एमएलए, हाकिम, कोतवाल, अफसर, प्रधान, सरपंच याकि तमाम तरह के डंडाधारियों को नजराने, शुक्राने, हरजाने से हम जीवन जीते हैं। कृपा पाते रहे हैं, डंडा खाते रहे हैं, आशीर्वाद या श्राप पाते रहे हैं तो उस पंरपरा से मुक्ति कैसे पा सकते हैं? रोम-रोम का जब अनुभव शासक-शासित, मूर्ति पूजा और आरती का है, लुटाने और लूटने का है और उससे फिर औसत चाहना भी जब रूलिंग क्लास, देवलाय के पंडे-पुजारी, कलम वाले, लाठी वाले हाकिम बनने की है तो इतिहासजन्य संस्कारों से मुक्ति कैसे संभव है? हिंदू का बच्चा-बच्चा सोचता है कि जीवन तभी धन्य है जब हाकिम की लाठी वाली नौकरी हो, कमाने का मौका हो इसलिए हमें भी बनना है भेड़-बकरियों को हांकने वाला गड़रिया। क्या यह औसत हिंदू बुद्धि की सहज चाहना नहीं है?

इन तीन सत्व-तत्व के अलावा बाकी बहाने वक्त के अनुसार बनते-बदलते हैं। पंडित नेहरू और उनके आइडिया ऑफ इंडिया के प्रारंभ में बहाना था भारत अंग्रेजों द्वारा लूटा गया, कंगला और गरीब है तो पंडित नेहरू क्या और कितना कर सकते हैं। जनता से कहा जाता था अंग्रेज जब छोड़ गए थे तो सुई नहीं बनती थी अब सुई से ले कर टैंक सब बन रहे हैं। इंदिरा गांधी का वक्त आया तो बहाना था भ्रष्ट-नाकारा-गरीब विरोधी बूढ़े कांग्रेसी कुछ नहीं करने दे रहे हैं। सो, गरीबी हटाने, समाजवाद लाने के लिए सिंडिकेट हटाओ। इंदिरा गांधी के वक्त एक बहाना सीआईए का था तो साम्राज्यवादी-दक्षिणपंथियों का भी था। राजीव गांधी के वक्त सत्ता के दलालों पर ठीकरा था। फिर जब हिंदुवादियों का राज आया तो बहाना बना कांग्रेसी सब खा गए, बरबाद कर गए। मुसलमानों ने अति कर दी। इस सबको ठीक करने में दस-बीस साल तो लगेंगे।

सन् 2020 के मौजूदा वक्त में विरोधी देशद्रोहियों का बहाना है, मुसलमानों का बहाना है, चीन का बहाना है। वैश्विक मंदी का बहाना है। दैवीय घटना का बहाना है। मतलब जितनी विकट स्थिति है उतने बड़े बहाने। तभी एक लेवल पर सोचें कि भारत राष्ट्र-राज्य की यह कैसी रचना 15 अगस्त 1947 की आधी रात में हुई, जिससे उसकी कुंडली में लगातार राहु नीच! राहु-शनि की कुदृष्टि से मुक्त ही नहीं हो पा रही भारत माता! जरूर जन्मकाल शुभ वक्त का नहीं है।

ऐसे दूसरा कोई सभ्यतागत देश, कौम नहीं सोचती। क्या दुनिया के किसी देश, किसी राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री ने महामारी के वैज्ञानिक सत्य-तथ्य-अनुभव के मध्य उससे अपने बचाव में अपनी जनता को आव्हान किया कि शाम पांच बजे, पांच मिनट ताली, थाली बजाओ, दिया जलाओ! हम 21 दिनों में कोरोना पर विजय प्राप्त करेंगे। उफ! सोचें उस दिन तमाम तरह के हिंदू, पढ़े-लिखे, साक्षर-निरक्षक सब घर के बाहर कैसे ताली-थाली बजाते हुए थे!

मेरा मानना है कि वह दिन, वह घटना वैश्विक पैमाने पर दुनिया को जतला गई, बतला गई, दिखला गई कि हम हिंदू कैसे हैं! हिंदू के दिमाग, उसकी बुद्धि के कोर में क्या है? हमारी बुद्धि में अभी भी, 21वीं सदी में भी मानव इतिहास में इंसान बनाम प्रकृति के रिश्तों में बीमारी, महामारी का अनुभव इसलिए समझदारी नहीं बनाया हुआ है क्योंकि हमने सदा-सर्वदा नियति-भाग्य में बुद्धि को दबाए रखा है। नियति-भाग्य-अंधविश्वास और जादू-ट़ोनों में ही हमारी जब नियति-निवृति है तो बुद्धि खिलेगी कैसे?

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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