सेठ जी एक बड़ी सियासत के मालिक थे। उनका अपना महल था जो लगभग सौ बीघे में फेला हुआ होगा। महल का एक-एक कमरा झाड़फानूसों, कालीनों व आलीशान सामान से सुसज्जित था।
महल के चारों ओर उनके ही कर्मचारियों के मकान थे। पक्की सड़कें, सुन्दर बाग, बगीचे…। पूरा इलाका ऐसा लगता था मानो स्वर्ग में स्थित होई छोटा सा नगर हो।
सेठ जी के पास काफी धन-दौलत व पूंजी थी। पुरखे भी रियासत के ज़मीनदार रहे थे। हीरे-जवाहरात, सोना, चांदी से तिजोरियां भरी रहती थी। सैकड़ों सालों में सेठ जी के पुरखों ने यह सम्पत्ति जमा की थी। यही काम अब सेठ जी कर रहे थे। हर पीढ़ी कुल सम्पत्ति में कुछ न कुछ जोड़ती ही जाती थी।
एक पत्नी व दो बच्चे-एक लड़का और एक लड़की। यह उनका छोटा-सा परिवार था। सेठ जी नियम के पक्के थे। जो लगान तय कर दिया वो तो किसान को देना ही है। जो व्यवसाय कर लगा दिया, वह व्यापारी को देना ही है। एक बार गेंदा, नगलू, बुद्धू, होशियार…..और भी बीसीयों किसान हिम्मत करके सेठ जी के घर आ पहुंचे। पहले तो सेठ जी चौकीदारों पर बरसे कि किसान लोग घर पर कैसे आ गए? रोका क्यों नहीं? फिर बात तो करनी ही थी तो कर ली।
सेठ जी ने किसानों से रौबीली आवाज में पूछा, “कैसे आए हो? कुछ लगान की रक भी लाए हो या खाली हाथ आ गए?”
सभी किसान हाथ जोड़, गर्दन नीचे किए खड़े थे। कोई कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सका।
“अरे बोलते क्यों नहीं? लगान कहां है? एक महीने पहले ही जमा करना था। जमा क्यों नहीं किया?”
बुद्धू डरते-डरते आगे बढ़ा और सेठ जी के पैर पकड़ते हुए बोला, “हुजूर, अबकी बार नील गायों का झुण्ड हमारे खेत नष्ट कर गया। हमारा लगान माफ कर दीजिये।”
सेठ जी ने पैर झटकते हुए व दो कमद पीछे हटते हुए कहा, “नील गाएं खेत नष्ट कर गई……! तो मैं क्या करूं, देखभाल क्यों नहीं की? खैर, देखभाल करो या न करो, यह तुम्हारी मर्जी, मुझे तो लगान दो….।”
“हुजूर, घर में खाने को अन्न नहीं है, दवा लाने को पैसे नहीं हैं। हम लोग तो भूख व बीमारियों से मर रहे हैं, लगान कैसे दे?”
“मैं कुछ नहीं जानता। पन्द्रह दिन का समय दे रहा हूं। लगान नहीं आया तो जमीन छीन लूंगा।”
सेठ जी झिड़क कर महल में चले गए। बेचारी जनता रो-पीट कर वापस चली आई। कहते हैं न, “गए थे नमाज छुड़वाने, रोजे गले पड़ गए।” वही हुआ, गए थे लगान छुड़वाने व दवा का पैसे लेने, पर जमीन से बेदखली की धमकी लेकर लौटे।
सेठानी जी धार्मिक महिला थीं। वो भी किसी ज़मीदार की ही बेटी थीं। पर वह जमीदार कुछ और ही किस्म के थे। उन्होंने अपने पिता को दान देते, महत्माओं को भोजन करवाते देखा था उनके मन में आज भी यह तमन्ना होती थी कि मैं भी महात्माओं को भोजन करवाएं व दान दें परन्तु अपने पति के डर से कुछ नहीं कह पाती थी।।
साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)
लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण
(अभी जारी है… आगे कल पढ़े)
Whats up very cool website!! Guy .. Beautiful .. Superb .. I will bookmark your website and take the feeds also…I am happy to search out numerous helpful information here in the submit, we’d like work out more techniques on this regard, thanks for sharing.
I delight in, lead to I discovered just what I used to be having a look for. You have ended my 4 day lengthy hunt! God Bless you man. Have a great day. Bye