प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों को लेकर खूब चर्चा हो चुकी है। तारीफें हुईं हैं तो आलोचना भी खूब हुई है। सोशल मीडिया में खूब मजाक भी बने हैं। किसी ने कहा कि प्रधानमंत्री का एक ही संदेश है- मेरा भाषण ही मेरा शासन है! किसी और ने कहा कि उनका नारा है- तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें भाषण दूंगा! वे खूब भाषण देते हैं और कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। पांच से दस अगस्त के बीच छह दिन में उन्होंने तीन लंबे-लंबे भाषण दिए। पांच अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर के भूमिपूजन और शिलान्यास के मौके पर बोले। उसके दो दिन बाद शुक्रवार को शिक्षा पर हुए एक सम्मेलन में उन्होंने नई शिक्षा नीति के बारे में विस्तार से भाषण दिया। इसके दो दिन बाद रविवार को एग्री इंफ्रा फंड की घोषणा करते हुए उन्होंने खेती-किसानी पर लंबा-चौड़ा भाषण दिया।
वे अपने भाषणों में जो कुछ भी कहते हैं, लोग अपने अपने अंदाज में उसका विश्लेषण करते हैं। किसी भी नेता के भाषण का पाठ हमेशा विश्लेषण के लिए खुला होता है। पाठ के अंदर ढेर सारे पाठ खोजे जा सकते हैं और कई आदमी अपने अपने कांटेक्स्ट के साथ उस टेक्स्ट का विश्लेषण करके बिल्कुल अलग अलग नतीजे पर पहुंच सकते हैं। पर भाषा इस किस्म के विश्लेषण से अलग होती है। साहित्यिक भाषणों में या लेखन में तो इस बात का विश्लेषण किया जाता है कि कथ्य कैसा है और भाषा कैसी है पर नेताओं के भाषण में सिर्फ इस बात का विश्लेषण होता है कि क्या कहा गया। इसका विश्लेषण बहुत कम होता है कि कैसे कहा गया। कथ्य और भाषा को अलग करके नहीं देखा जाता है।
अगर प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को इस नजरिए से देखें तो एक अलग ही तस्वीर निकलती है। वे अपने हर भाषण में कथ्य के हिसाब से शब्दों का चयन करते हैं और यहीं बात उनके हर भाषण को विशिष्ट बनाती है। पहले भी भारतीय राजनीति में अनेक ऐसे नेता हुए हैं, जो जनता की नब्ज को पकड़े होते थे वे अक्सर उन्हीं शब्दों में अपनी बात रखते थे, जिनका लोगों के मन मस्तिष्क पर सर्वाधिक असर होता था। अलग अलग नेताओं की अपनी शब्दावली होती है और अलग अलग समय में भी राजनीतिक शब्दावली अलग होती है, जिनका इस्तेमाल नेता अपने भाषणों में करते हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति के समय ‘भूराबाल’ साफ करने का नारा भी चल गया था और ‘तिलक, तराजू और तलवार’ को जूते मारने का नारा भी चल गया है। पर आज ये नारे या उस समय की शब्दावली नहीं चल सकती है। आज राजनीति का व्याकरण बदल गया है तो भाषण की भाषा भी बदल गई है।
तभी कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेताओं को भी प्रधानमंत्री का भाषण ध्यान से सुनना चाहिए। उन्होंने क्या कहा, सिर्फ उसी पर प्रतिक्रिया देने से उनका जवाब मुकम्मल नहीं होता है। बहरहाल, इस लंबी भूमिका का मतलब यह बताना है कि प्रधानमंत्री मौके के मुताबिक हिंदी भाषा के शब्द चुनते हैं। वे जिस वर्ग के श्रोता को अपनी बात सुनाना चाहते हैं उसकी पसंद की शब्दावली चुनते हैं। यह काम वे खुद करते हैं या उनकी टीम करती है ये अलग बात है पर वे हमेशा विषय और श्रोता को ध्यान में रख कर बोलते हैं। तभी उनके अलावा इस समय कोई दूसरा नेता नहीं दिख रहा है, जो हिंदी भाषा का इतने प्रभावी तरीके से इस्तेमाल कर सके।
उन्होंने अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के मौके पर संस्कृतनिष्ठ भाषण दिया। उन्होंने इतने तत्सम शब्दों का प्रयोग किया, जितने हिंदी के अच्छे पढ़े-लिखे लोग नहीं कर सकते हैं। उन्होंने गंभीर और असरदार शब्द चुने, उन्हें वाक्य में पिरोया और शुद्ध उच्चारण के साथ उनका अपने भाषण में इस्तेमाल किया। निर्भीकता, सत्यनिष्ठा, शाश्वत आस्था, उदारता, धैर्य, दृढ़ता, समरसता, दार्शनिक दृष्टि, सर्वव्यापकता, आत्मीयता, आस्था, संकल्प, भक्ति, श्रद्धा, भव्यता जैसे शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने प्रचूर मात्रा में किया। इन शब्दों का इस्तेमाल अवसर के अनुकूल था और इसमें सुनने वालों का भी खास ध्यान रखा गया था। श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ में एक प्रसंग है कि वैद्य जी ने संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा, जिसे सुनते ही शनिचर साष्टांग लेट गया। उसे भले संस्कृत का श्लोक समझ में नहीं आया हो पर जैसे एक औसत हिंदू का सिर संस्कृत के शब्द सुनते ही अपने आप श्रद्धा से झुक जाता है, वैसे ही शनिचर के साथ हुआ। और यहीं पांच अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के भाषण से हुआ।
प्रधानमंत्री ने कहा- श्रीरामचंद्र को तेज में सूर्य के समान, क्षमा में पृथ्वी के तुल्य, बुद्धि में बृहस्पति के सदृश्य और यश में इंद्र के समान माना गया है। भव्य राममंदिर भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत का द्योतक होगा। यहां निर्मित होने वाला राममंदिर अनंतकाल तक पूरी मानवता को प्रेरणा देगा। ये पंक्तियां किसी को समझ में आएं या नहीं उसका सर श्रद्धा से झुकेगा। भले उसमें खुद इनमें से कोई गुण नहीं हो पर वह समझेगा कि मोदीजी इन गुणों से संपन्न हैं और इसलिए वे भी सूर्य, पृथ्वी, गुरू और इंद्र के समान हैं। प्रधानमंत्री ने अपने पूरे भाषण में सिर्फ एक अंग्रेजी शब्द ‘मास्क’ बोला और इसी क्रम में जब उन्होंने दो ‘गज’ दूरी की बात कही तो एक उर्दू का शब्द बोला। ऐसा नहीं है कि यह अनायास हुआ, बल्कि यह सोची समझी योजना का हिस्सा है।
इसके दो दिन बाद उन्होंने नई शिक्षा नीति पर जो भाषण दिया वह इससे पूरी तरह से अलग था। उनका पूरा भाषण अंग्रेजी के शब्दों से भरा था। उनको पता था कि वे किसको संबोधित कर रहे हैं, वे लोग किस भाषा में संवाद करते हैं और उनके साथ कैसे तालमेल बैठाया जा सकता है। उन्होंने शिक्षा नीति पर बोलते हुए कहा कि यह ‘व्हाट टू थिंक से हाऊ टू थिंक’ की ओर ले जाने वाली नीति है। मोदी ने कहा- मौजूदा समय में इमेजिनेशन की कमी है, क्रिएटिव थिकिंग, पैशन और फिलॉसफी ऑफ एजुकेशन खत्म हो चुका है। प्रधानमंत्री ने कहा नई शिक्षा नीति बनाते समय खास तौर से ‘क्रिएटिविटी, क्यूरोसिटी और कमिटमेंट मेकिंग’ पर ध्यान दिया गया है। उन्होंने कहा कि ‘स्टूडेंट्स पढ़ेंगे तो नेशन बिल्डिंग में कन्सट्रक्टिव’ भूमिका अदा कर पाएंगे। प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि युवाओं को शिक्षा में ‘पैशन’ एवं ‘फिलॉस्फी’ न मिले तो ‘पर्पज ऑफ एजुकेशन’ पूरा नहीं होता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस नीति में ‘डिग्निटी ऑफ टीचर्स’ का खास ध्यान रखा गया है। इसके अलावा उन्होंने पोलिटिकल विल, चैलेंज, बिग रिफॉर्म, कमिटमेंट, इन्क्वायरी, इनोवेशन, डिस्कवरी, डिस्कशन, एनालिसिस जैसे अनेक भारी भरकम अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया।
पहली नजर में यह लगेगा कि गंभीर राजनीतिक विमर्श के बीच भाषा का और शब्दों के चयन का मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है पर असल में यह कथ्य के बराबर ही महत्व वाली चीज है। नरेंद्र मोदी के विपक्ष को सबसे पहले इस बात को समझना होगा। यह सिर्फ भाषण कला में प्रवीणता का मामला नहीं है, बल्कि व्यापक रूप से समाज को और खासतौर से अपने समर्थक वर्ग को पहचानने, उनकी नब्ज जानने और उन्हें सबसे ज्यादा अपील करने वाली भाषा में संबोधित करने का मामला है। प्रधानमंत्री जब सेना के बारे में बोलते हैं तो उनकी शब्दावली अलग होती है और भाषण देने का अंदाज भी अलग होता है। शिक्षा पर शब्दावली और अंदाज दोनों अलग होते हैं। किसानों के मामले में अलग और उद्योग व कारोबार के मामले में अलग होते हैं। लॉकडाउन पर देश के लोगों को भरोसे में लेने का भाषण अपनी तरह का अलग भाषण था तो अयोध्या का भाषण भी अलग अंदाज का था।
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)