नई शिक्षा नीतिः दिमाग में उठते कुछ प्रश्न

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नई शिक्षा नीति का सबसे पहले तो इसलिए स्वागत है कि उसमें मानव-संसाधन मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय नाम दे दिया गया। मनुष्य को ‘संसाधन’ कहना तो शुद्ध मूर्खता थी। जब नरसिंहरावजी इसके पहले मंत्री बने तो मैंने उनसे शपथ के बाद राष्ट्रपति भवन में कहा कि इस विचित्र नामकरण को आप क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? उनके बाद मैंने यही प्रश्न अपने मित्र अर्जुनसिंह जी और डाॅ. मुरलीमनोहर जोशी से भी किया लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई कि उसने इस मंत्रालय का खोया नाम लौटा दिया। पिछले 73 वर्षों में भारत ने दो मामलों की सबसे ज्यादा उपेक्षा की। एक शिक्षा और दूसरी चिकित्सा। उसका परिणाम सामने है। भारत की गिनती अभी भी पिछड़े देशों में ही होती है, क्योंकि शिक्षा और चिकित्सा पर हमारी सरकारों ने बहुत कम ध्यान दिया और बहुत कम खर्च किया। इनमें से एक बुद्धि को दूसरी शरीर को बुलंद बनाती है।

तन और मन को तेज करनेवाली दृष्टि तो मुझे इस नई शिक्षा नीति में दिखाई नहीं पड़ती। इस नई नीति में न तो शारीरिक शिक्षा पर मुझे एक भी शब्द दिखा और न ही नैतिक शिक्षा पर। यदि शिक्षा शरीर को सबल नहीं बनाती है और चित्तवृति को शुद्ध नहीं करती है तो यह कैसी शिक्षा है ? बाबू बनाने, पैसा गांठने और कुर्सियां झपटना ही यदि शिक्षा का लक्ष्य है तो ये काम तो सर्वथा अशिक्षित लोग भी बहुत सफलतापूर्वक करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि इस नई शिक्षा नीति में नया कुछ नहीं है। काफी कुछ है। इसमें मातृभाषा को महत्व मिला है। छठी कक्षा तक सभी बच्चों को स्वभाषा के माध्यम से पढ़ाया जाएगा। यह अच्छी बात है लेकिन हमारी सरकारों में इतना दम नहीं है कि वे दो-टूक शब्दों में कह सकें कि छठी कक्षा तक अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाने पर प्रतिबंध होगा।

यदि ऐसा हो गया तो शिक्षा के नाम पर चल रही निजी दुकानों का क्या होगा ? त्रिभाषा-व्यवस्था जिस तरह से की गई है, ठीक है लेकिन अंग्रेजी की पढ़ाई को स्वैच्छिक क्यों नहीं किया गया ? यदि भाजपा की सरकार भी कांग्रेसी ढर्रे पर चलेगी तो उसे अपने आप को राष्ट्रवादी कहने का अधिकार कैसे सुरक्षित रहेगा ? क्या इस नई शिक्षा नीति के अनुसार सभी विषयों की एम.ए. और पीएच.डी. की शिक्षा भी भारतीय भाषाओं के माध्यम से होगी ? आज से 55 साल पहले मैंने जवाहरलाल नेहरु विवि में अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की लड़ाई लड़ी थी। पूरी संसद ने मेरा समर्थन किया। मेरी विजय हुई लेकिन आज भी लगभग सारा शोध अंग्रेजी में होता है। इस अंग्रेज के बनाए ढर्रे को आप कब बदलेंगे ? ये तो मेरे कुछ प्रारंभिक और तात्कालिक प्रश्न हैं लेकिन नई शिक्षा नीति का जब मूल दस्तावेज हाथ में आएगा, तब उस पर लंबी बहस की जाएगी।

डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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