जम्मू कश्मीर में विधानसभा कब बहाल होगी, चुनाव कब होंगे, लोकप्रिय सरकार कब बनेगी, सारे राजनीतिक बंदियों की रिहाई कब तक होगी, ये सब ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब किसी को पता नहीं है। राजनीतिक प्रक्रिया के बारे में अभी सिर्फ इतना पता है कि राज्य में परिसीमन का काम चल रहा है। लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया से इतर कैसे ऐसे काम चल रहे हैं या अपने आप हो रहे हैं, जिनसे ऐसा लग रहा है कि जम्मू कश्मीर में हालात बदल सकते हैं। इसे सदिच्छा भी मान सकते हैं पर ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी का अपने ही संगठन से इस्तीफा देना मामूली बात नहीं है। गिलानी ने जिस संगठन से इस्तीफा दिया है उसका नाम ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस (गिलानी) है। अपने ही नाम से बने संगठन से उनका इस्तीफा देना बहुत बड़ी बात है। कहने को कहा जा सकता है कि वे 90 साल के हो गए हैं और बीमार रहते हैं इसलिए उनके इस्तीफे से बहुत कुछ नहीं बदलना है। उनके इस्तीफे से कुछ बदले या नहीं बदले पर उनका इस्तीफा अपने आप में बहुत कुछ बदलने का संकेत है। ध्यान रहे गिलानी वह शख्सियत हैं, जिन्होंने अकेले घाटी में अलगाववादी आंदोलन को खड़ा किया। सत्तर के दशक में गिलानी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुडे थे और चुनाव में हिस्सा लेते थे। पर अस्सी के दशक में उन्होंने अलगाववादी चोला पहन लिया और उसे जम कर हवा दी। इस लिहाज से वे कश्मीर घाटी में अलगाववादी आंदोलन के पितामह हैं। उन्होंने सबसे बड़े अलगाववादी संगठन से इस्तीफा दिया है, इसलिए यह बड़ी बात है।
अगर उनके इस्तीफे को अकेल देखेंगे तो हो सकता है कि इसका बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिखाई दे पर उसे जम्मू कश्मीर में और खास कर घाटी में चल रहे दूसरे घटनाक्रमों से जोड़ कर देंखेंगे तो इसका महत्व पता चलेगा। पिछले साल अगस्त के पहले हफ्ते में भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म कर दिया था। उसके साथ ही केंद्र ने राज्य का बंटवारा दो हिस्सों में कर दिया। जम्मू कश्मीर से अलग करके लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया है। हालांकि उससे भारत-चीन की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जो समस्याएं आ रही है वह अलग सिरदर्द है। पर केंद्र का यह फैसला जम्मू कश्मीर को पूरी तरह से बदल देने वाला था। उसके बाद सरकार ने एक और बड़ा काम यह किया कि जम्मू कश्मीर के लिए डोमिसाइल के नए नियम बना दिए। इसके तहत एक निश्चित समय तक राज्य में काम कर चुके या रह चुके लोगों को वहां नागरिकता मिल जाएगी। इस नियम के तहत पहली नागरिकता राज्य के एक बड़े अधिकारी को दी गई है, जो मूल रूप से बिहार के रहने वाले हैं। हजारों लोगों ने नई डोमिसाइल नीति को तहत नागरिकता का आवेदन किया है और लोगों को धीरे धीरे नागरिकता दी भी जा रही है। राज्य के अलगाववादी संगठनों और मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों को भी लग रहा है कि इससे राज्य की जनसंख्या संरचना बदल जाएगी। हालांकि नागरिकता के ज्यादातर आवेदन जम्मू इलाके के लिए हैं फिर भी जनसंख्या संरचना बदलने की आशंका बहुत बड़ी है।
इसके बावजूद वहां कोई लोकप्रिय आंदोलन नहीं खड़ा हो सका है। कह सकते हैं कि राजनीतिक नेतृत्व के बंदी होने की वजह से ऐसा है पर यह आधा सच है। लोकप्रिय आंदोलन बिना नेता के भी खड़ा हो सकता है और एक बार मोमेंटम बिगड़ने के बाद कितना भी बड़ा नेता हो वह आंदोलन खड़ा नहीं कर सकता है। इसका मतलब है कि जम्मू कश्मीर में लोग लगातार होने वाले आंदोलनों से थके हैं इसलिए कोई स्वंयस्फूर्त आंदोलन खड़ा नहीं हुआ। यह अलगाववादी नेतृत्व और मुख्य धारा के नेतृत्व दोनों के लिए एक बड़ा मैसेज है। इसका बहुत साफ मतलब यह है कि वहां की आवाम का नेतृत्व करने वाले अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं। इस बात को इस तथ्य से भी समझ सकते हैं कि तमाम अलगाववादी नेताओं के खिलाफ एनआईए की जांच चल रही है। कई लोगों को गिरफ्तार किया गया है और हवाला के जरिए उनको मिलने वाली आर्थिक मदद को एक्सपोज करके उसे लगभग पूरी तरह से बंद करा दिया गया है। मुख्यधारा के कई बड़े नेताओं को हिरासत में रखा गया। अब भी पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती हिरासत में हैं। इसके बावजूद पूरे प्रदेश में कोई आंदोलन नहीं हुआ। पार्टियां अपने नेता के छूटने का इंतजार करती रहीं और इस बीच प्रदेश में नया नेतृत्व खड़ा हो गया। दूसरे, पिछले चार दशक से जम्मू कश्मीर की आवाम का नेतृत्व करने वाले लोग स्वाभाविक रूप से राजनीतिक परिदृश्य से हट रहे हैं।
मुफ्ती मोहम्मद सईद का इंतकाल हो गया। फारूक अब्दुल्ला की उम्र 83 साल हो गई है। सैयद अली शाह गिलानी 90 साल की उम्र में हुर्रियत कांफ्रेंस से अलग हो गए हैं। इनकी पार्टियों या संगठनों का नया नेतृत्व भी इन्हीं की तरह लोगों को जोड़े रखेगा, इसकी संभावना कम है। एक तरफ मुख्यधारा के पुराने राजनीतिक दलों की ताकत कम हो रही है, नई पार्टियां उभर रही हैं, नए नेता उभर रहे हैं तो दूसरी ओर अलगाववादी संगठनों के ढांचे में मूलभूत बदलाव हो रहा है। इन संक्रमण काल में सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों के सफाए का अभियान चलाया हुआ है। पिछले एक महीने में कोई 30 खूंखार आतंकवादी मारे गए हैं। यह पहली बार हुआ है कि जैश ए मोहम्मद से लेकर हिजबुल मुजाहिदीन और इस्लामिक स्टेट जैसे चार बड़े आतंकवादी संगठनों के सरगना पिछले चार महीने में मारे गए हैं। इन संगठनों के पास नए कमांडर नहीं हैं। सुरक्षा बलों ने एक एक करके घाटी के इलाके को आतंकवादियों से खाली कराना शुरू कर दिया है। सुरक्षा बलों के मुताबिक चिनाब घाटी पूरी तरह से आतंकवादियों से खाली हो गई है। अगर ऐसे समय में सरकार घाटी में लगाई गई पाबंदियों को धीरे धीरे हटाती है और राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करती है, लोगों की भागीदारी बढ़ाती है और ईमानदारी से चुनाव करा कर लोकप्रिय सरकार का गठन कराती है तो कश्मीर को हमेशा के लिए बदला जा सकता है।
तन्मय कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)