भारत और चीन के आपसी रिश्ते वर्ष 1962 में चीन द्वारा अकारण किए गए हमले के बाद से ही कभी सहज नहीं रहे। वैसे तो उस समय सीमा संबंधी मुद्दा ही समस्या का मूल कारण था, लेकिन विगत वर्षो में कई और भी मुद्दे इसमें जुड़ गए हैं। दरअसल, वर्तमान समय के चीन ने दुनिया की नंबर वन ताकत बनने का मंसूबा पाल रखा है और इसी वजह से वह अमेरिका के साथ भी कटुतापूर्ण आर्थिक टकराव और शक्ति संघर्ष से बाज नहीं आ रहा है। चीन को ऐसा प्रतीत होता है कि भारत दिन-ब-दिन अमेरिका का खासमखास बनता जा रहा है और उसकी महत्वाकांक्षाओं की राह में बहुत बड़ी बाधा है। इसलिए भारत को नीचा दिखाकर उसका मनोबल गिराना उसे जरूरी लगता है। सीमा का निर्धारण अब तक सीमा का निर्धारण नहीं होना, इस समस्या के लिए आग में घी डालने का काम कर रहा है। शांति का आधार चूंकि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) ही है, इसलिए जब तक इस रेखा के वास्तविक स्थान के बारे में कोई समझौता नहीं हो जाता, तब तक शांति कायम होने के आसार ना के बराबर हैं। नक्शे पर इस रेखा को दर्शाने और जमीन पर इसका परिसीमन करने के लिए संयुक्त कार्य समूह जैसी विभिन्न व्यवस्थाएं की गईं और ‘विशेष प्रतिनिधियों’ की बैठकें भी आयोजित की गईं। यहां तक कि इसका मार्ग प्रशस्त करने के लिए मानचित्रों का भी आदान-प्रदान किया जाना था। केंद्रीय क्षेत्र (सेंट्रल सेक्टर) के लिए मानचित्रों का आदान-प्रदान वर्ष 2002 में ही कर दिया गया था, लेकिन इसके बाद यह प्रकिया बंद हो गई क्योंकि सब कुछ चीन के दीर्घकालिक नापाक मंसूबों के अनुरूप नहीं हो रहा था।
यह चीन की चिर-परिचित कुटिल चालबाजी को दर्शाता है। हाल में लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ जैसे कई मामले इन वजहों से होते दिख रहे हैं। एलएसी पर स्पष्टता की कमी से उन्हें एक बहाना मिल गया है। वास्तव में दोनों एक-दूसरे की मान्यताओं को अच्छी तरह समझते हैं। समय के साथ वे इस बात पर सहमत हुए हैं कि विवाद के 23 ऐसे क्षेत्र (लद्दाख में 11) हैं, जिनके समाधान की जरूरत है। गलवान घाटी इनमें शामिल नहीं है। हाल में गलवान में हुई घटना से इस क्षेत्र में चीन की दीर्घकालिक महत्वाकांक्षाएं सामने आ गई हैं। चीन के विदेश मंत्री ने अब दावा किया है कि गलवान घाटी हमेशा से उनकी रही है, जिससे जाहिर होता है कि चीन की नजर काफी दूर तक है। डीबीओ-काराकोरम दर्रे पर कब्जे की कोशिश तथा उसे शक्सगम घाटी (भारतीय क्षेत्र, जो पाकिस्तान द्वारा उसे सौंपा जा चुका है) से जोड़ना और फिर सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने में पाकिस्तान की सहायता करना उसकी दीर्घकालिक रणनीति है। उत्तर पूर्वी लद्दाख पर कब्जे से चीन को अक्साई चिन मार्ग तक मजबूत पहुंच और चीन-पाक आर्थिक गलियारे को सुरक्षा मिल जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए इस बड़े खतरे के बारे में बताने के लिए 19 जून, 2020 को सभी राजनीतिक दलों को आमंत्रित किया। उन्होंने अपने संबोधन में आठ बिंदुओं को सामने रखा। इनमें सीमा पर बुनियादी ढांचे का विकास, सैन्य बलों को बेहतर साजो सामान की उपलब्धता और तैयारियां, सीमावर्ती इलाकों में निरंतर पैट्रोलिंग और मजबूत प्रतिक्रिया देने की क्षमता शामिल हैं।
इसके अलावा उन्होंने एलएसी, विशेष रूप से गलवान घाटी की स्थिति पर भी प्रकाश डाला। प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की कि ‘कोई भी घुसपैठिया भारत की सीमाओं के अंदर मौजूद नहीं है और न ही हमारी कोई पोस्ट किसी के कब्जे में है’। दुर्भाग्य से इस बात की अलग-अलग व्याख्याएं हुई हैं और इससे देश के हितों के खिलाफ भ्रम का माहौल बना है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने 20 जून को स्पष्टीकरण दिया, जिसमें कहा गया है- (क) पीएम ने ‘सभी दलों के साथ बैठक’ में गलवान घाटी में हुई घटनाओं पर चर्चा की थी। उन्होंने बिहार के सैनिकों के बलिदानों को रेखांकित किया, जिन्होंने चीनी पक्ष द्वारा वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के प्रयास को नाकाम कर दिया और उस दिन (15 जून को) इस बिंदु पर एलएसी केउल्लंघन की कोशिश को नाकाम कर दिया। (ख) पीएम मोदी का यह अवलोकन कि कोई चीनी मौजूदगी ‘हमारी तरफ वाली एलएसी पर नहीं थी, वो दरअसल हमारे सशस्त्र बलों की बहादुरी के परिणाम के रूप में इस स्थिति से संबंधित थी’। (ग) यह स्पष्ट किया गया था कि ‘भारत एलएसी का उल्लंघन करने के किसी भी प्रयास का दृढ़ता से जवाब देगा’ और सुनिश्चित करेगा कि अतीत के विपरीत भारतीय सेना अब एलएसी के किसी भी उल्लंघन के खिलाफ निर्णायक रूप से काम करेगी।
अब जब प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा स्पष्टीकरण दे दिया गया है, तो मामले को यहीं विराम देने की अनुमति दी जानी चाहिए। यह देश के हित में होगा कि हम अपने सामने आने वाले खतरे पर ध्यान दें और इस पर अभी राजनीति न करें। पीएम ने पर्याप्त रूप से स्पष्ट कर दिया है कि ‘भारतीय क्षेत्र के हर इंच की रक्षा करने का हमारा संकल्प है और अगर उकसाया गया तो निर्णायक जवाब देने में भी हम सक्षम हैं’। मगर चीन को शांति में कोई दिलचस्पी नहीं है। यह इस बात से साफ हो जाता है कि वह गलवान घाटी पर व्यापक दावे कर रहा है और हमारी तरफ की एलएसी पर हो रहे बुनियादी ढांचे के विकास पर आपत्ति कर रहा है। शांति में दिलचस्पी भारत को इस स्थिति का सामना राजनयिक, आर्थिक और सैन्य, सभी धरातलों पर करना होगा। आखिरी बात यह कि जब चीनी ऐसे आक्रामक तौर-तरीके दिखाते हैं तो भारत को उनकी संवेदनाओं की परवाह क्यों करनी चाहिए? तिब्बत, हांगकांग, दक्षिण चीन सागर आदि जैसे कई सारे मुद्दे हैं जिनके लिए चीन दुनिया के प्रति जवाबदेह है। भारत को धीरे-धीरे आर्थिक पहलुओं पर भी चीन से अलग होना शुरू करना पड़ेगा। चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करने का गुस्सा भारतीय लोगों में पहले ही पैदा हो रहा है।
जनरल एनसी विज
(लेखक पूर्व सेना प्रमुख हैं, ये उनके निजी विचार हैं)