..तो लोग महंगाई से मरेंगे

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लगातार 18 वें दिन डीजल के दामों में बढ़ोतरी हो चुकी है। डीजल दिल्ली में पहली बार पेट्रोल से आगे निकल गया है। माना जा रहा है कि देश में डीजल व पेट्रोल के दाम 100 रुपये लीटर पर भी नहीं थमेंगे। पिछले 18 दिन में सरकार पेट्रोल और डीजल के दाम में इतनी बढ़ोतरी कर चुकी है, जितनी अप्रैल 2002 में इन दोनों ईंधनों की कीमत को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के फैसले के बाद किसी एक पखवाड़े में नहीं बढ़ी। यह रिकार्ड भी उसी सरकार में बना, जिसने सब कुछ मुमकिन करने का नारा दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वायरस के संकट के बीच ‘आपदा को अवसर’ बनाने का नारा भी दिया और बिल्कुल सच्चे अर्थों में उनकी सरकार और पेट्रोलियम कंपनियों ने आपदा को अवसर बना लिया। ऐसा लगता है कि पहले ही भारत सरकार ने भांप लिया था कि आपदा आने वाली है और वह कमाई का बड़ा अवसर हो सकती है। इसलिए कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन लागू होने से दस दिन पहले 14 मार्च को भारत सरकार ने पेट्रोल और डीजल दोनों ईंधनों पर तीन-तीन रुपए उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया।

इस बढ़ोतरी के बाद सरकार उत्पाद शुल्क बढ़ाने की उस सीमा तक पहुंच गई, जिसकी मंजूरी उसे संसद से मिली थी। इसलिए संसद का बजट सत्र खत्म होने से ठीक पहले 23 मार्च को सरकार ने एक प्रस्ताव के जरिए उत्पाद शुल्क में और बढ़ोतरी की मंजूरी ले ली। जब सरकार ने संसद से उत्पाद शुल्क बढ़ाने की मंजूरी ली तब इसे रूटीन का काम माना गया। इसे भविष्य के उपाय के तौर पर देखा गया और ज्यादातर जानकारों का मानना था कि सरकार जरूरत पड़ने पर धीरे धीरे उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी करेगी। लेकिन सरकार की मंशा तो कुछ और थी। मई के पहले हफ्ते में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल मिट्टी के मोल मिल रहा था और इसकी कीमत 20 डॉलर प्रति बैरल के आसपास थी, जो 1999 के बाद का सबसे निचला स्तर था, तब केंद्र सरकार ने छह मई को अचानक पेट्रोल पर दस रुपए प्रति लीटर और डीजल पर 13 रुपए प्रति लीटर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया। इस तरह कच्चा तेल सस्ता होने का जो लाभ आम ग्राहक को मिलने वाला था उसे सरकार ने सोख लिया। रही सही कसर राज्य सरकारों ने निकाल ली।

उन्होंने कोरोना वायरस के संकट की वजह से खजाना खाली होने की दुहाई देकर पेट्रोल, डीजल पर वैट बढ़ा दिए। भारत सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ाया और राज्यों ने वैट बढ़ाए तो पेट्रोलियम कंपनियों को भी आम लोगों का खून चूसने की छूट मिल गई। सो, उन्होंने सात जून से कीमतों की रोजाना समीक्षा शुरू कर दी। रोजाना समीक्षा का यह मतलब नहीं है कि किसी दिन कीमत बढ़ रही तो किसी दिन घट रही है। उन्होंने लगातार 16 दिन दाम बढ़ाए और सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ा कर उनसे जो वसूली की थी वह उन्होंने आम लोगों से वसूल लिया। आज दिल्ली के लोग 80 रुपए लीटर में जो पेट्रोल खरीद रहे हैं उसमें 51 रुपया यानी 64 फीसदी हिस्सा केंद्र व राज्यों के कर का है। केंद्र सरकार 33 रुपया और राज्य सरकार 18 रुपया कर ले रही है। इसी तरह एक लीटर डीजल पर 50 रुपया यानी करीब 63 फीसदी हिस्सा कर का है, जिसमें केंद्र का 32 रुपया और दिल्ली सरकार का हिस्सा 18 रुपया है। छह साल पहले 16 मई 2014 के दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 108 डॉलर प्रति बैरल थी तब पेट्रोल की कीमत 71.41 रुपए थी, जिसमें केंद्र सरकार का शुल्क 9.20 पैसे था।

आज कच्चा तेल 40 डॉलर प्रति बैरल है और पेट्रोल की कीमत 80 रुपए प्रति लीटर है, जिसमें सरकार का शुल्क 33 रुपया है। 16 मई 2014 को दिल्ली में डीजल की कीमत 55.49 रुपए थी, जिसमें केंद्र सरकार का शुल्क सिर्फ 3.46 रुपए था। आज डीजल की कीमत 79 रुपए प्रति लीटर है, जिसमें केंद्र सरकार का हिस्सा 32 रुपया है। डीजल पर केंद्र का शुल्क छह साल में 820 फीसदी बढ़ा है। केंद्र व राज्य सरकार और पेट्रोलियम कंपनियों के सरकारी बाबुओं ने लगता है हिंदी का यह मुहावरा पढ़ लिया है कि ‘मुर्दे पर जैसे नौ मन मिट्टी वैसे दस मन मिट्टी’। जब लोग पहले से ही इतनी मुश्किलें झेल रहे हैं तो यह महंगाई भी झेल ही लेंगे! आखिर कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के नाम पर बिना सोचे-विचारे और बिना तैयारियों के किए गए लॉकडाउन को लोगों ने झेल लिया। लॉकडाउन की वजह से लोगों के काम-धंधे बंद हुए, स्वरोजगार चौपट हुआ, नौकरियां चली गईं तब भी लोग मुर्दों की तरह चुपचाप सारी चीजों को बरदाश्त करते गए। तभी सरकार की भी यह हिम्मत हुई कि वह और बोझ डालती जाए। ऐसा लग रहा है जैसे सरकार लोगों की सहनशक्ति की परीक्षा ले रही है।

वह देखना चाह रही है कि लोग किस हद तक जुल्म बरदाश्त कर सकते हैं! किसी भी लोक हितकारी सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह संकट के समय अपने नागरिकों की मदद करेगी। उनकी मुश्किलों को आसान करने का प्रयास करेगी। उनको जितनी संभव हो सके राहत मुहैया कराएगी। पर इस सरकार ने उलटे लोगों की मुश्किलें बढ़ाई हैं। राहत के नाम पर सरकार ने जो पैकेज घोषित किया वह बुनियादी रूप से लोन स्कीम का ऐलान था। विपक्ष और तमाम आर्थिक जानकारों की राय को नहीं मानने की जिद दिखाते हुए सरकार ने लोगों को नकद पैसे नहीं मुहैया कराए, जैसे दुनिया के अनेक मुल्कों की लोक कल्याणकारी सरकारों ने कराया है। उलटे भारत सरकार लोगों पर कीमतों का बोझ डालती गई। भारत सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक खाने-पीने की चीजों की महंगाई बढ़ी है। सरकार ने महंगाई का मई का डाटा रोक कर रखा था, जिसे 12 जून को जारी किया गया।

इसके मुताबिक खाने-पीने की चीजों की खुदरा महंगाई दर 9.28 फीसदी पहुंच गई है। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की ओर से 12 जून को जारी आंकड़े के मुताबिक खाने-पीने की चीजों की खुदरा महंगाई शहरी इलाकों में 8.36 फीसदी है और ग्रामीण इलाकों में 9.69 फीसदी है। यानी गांवों में ज्यादा महंगाई बढ़ी है। सोचें, इस महंगाई के ऊपर बढ़ी हुई पेट्रोल और डीजल की कीमतों का क्या असर होगा? देश भर के ट्रांसपोर्टर सरकार से अपील करके थक चुके। उनकी अलग मुश्किलें हैं। लॉकडाउन की वजह से मजदूर घर लौटे तो 60 फीसदी से ज्यादा ड्राइवर भी अपने गांव लौट गए हैं। फिलहाल 35 से 40 फीसदी ट्रांसपोर्टर ही देश के अलग अलग हिस्सों में जरूरी सामान पहुंचाने का काम कर रहे हैं और ऊपर से सरकार रोज पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा रही है। अंततः इसका भार भी खुदरा ग्राहकों के ऊपर ही पड़ना है। ऐसा दुनिया के किसी देश में नहीं हो रहा है। किसी देश ने आपदा को इस तरह से अवसर नहीं बनाया है।

दुनिया के सभ्य देशों में कोरोना वायरस की जांच मुफ्त में हो रही है, इलाज की सुविधाएं सरकार जुटा रही है, लोगों के हाथ में नकद पैसे दिए जा रहे हैं, सरकारें कंपनियों को पैसे दे रही हैं ताकि वे अपने कर्मचारियों का वेतन न काटें या उनकी छंटनी न करें लेकिन भारत में इन सबका उलटा हो रहा है। जांच के नाम पर लूट मची है। इलाज के नाम पर लूट की छूट खुद सरकार ने दे रखी है। एक के बाद एक महंगी दवाओं की मंजूरी सरकार देती जा रही है। मरीजों की बेतहाशा बढ़ती संख्या के बावजूद निजी अस्पतालों का टेकओवर नहीं किया जा रहा है। उनकी मनमानी फीस पर रोक भी नहीं लगाई जा रही है और कंपनियां मनमाने तरीके से लोगों को निकाल रही हैं या कामकाज बंद कर रही हैं। इतिहास इस बात को भी याद रखेगा कि जिस समय लोग लोग पाई-पाई के मोहताज थे, दाने-दाने को तरस रहे थे और जांच से लेकर इलाज तक के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे थे उस समय देश की संवेदनहीन सरकार थके-हारे, लुटे-पिटे नागरिकों का खून चूस कर खजाना भरने में लगी थी।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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