खात्मे के कगार पर सबर जनजाति

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झारखंड सरकार की लिस्ट बताती है कि राज्य में कुल 32 जनजातियां हैं। इनमें 8 आदिम जनजातियों की श्रेणी में हैं। इन आठ में से 5 जनजातियां विलुप्तप्राय की श्रेणी में हैं। इन्हीं पांच में से एक है सबर आदिम जनजाति। यह जनजाति आज भी जंगलों, पहाड़ों की गुफाओं में आदिमानव की तरह रह रही है जिनमें से कोई भी औसतन 45 साल से ज्यादा जिंदा नहीं रह पाता। पूर्वी सिंहभूम के झारखंड और ओडिशा सीमा पर लखाईडीह पहाड़ पर एक ऐसी तस्वीर देखने को मिलती है कि विश्वास नहीं होता आज के इस डिजिटल युग में कोई इंसान आदिमानव की तरह भी जिंदगी जी सकता है। लेकिन यह सच है। लखाईडीह के जंगल और पहाड़ के बीच चट्टानों की गुफा में दो सबर परिवार रहते हैं। इनमें एक लखाईडीह गांव का है और दूसरा दस साल पहले ओडिशा से झारखंड आया था। यहां कोई सुविधा थी नहीं तो इसने भी चट्टानों की गुफा को अपना घर बना लिया और पत्नी, बच्चे और मां के साथ गुफा में रहने लगा।

आदि मानव की तरह पहाड़ी नाले का पानी पीना, पत्थर की गुफा में रहना, भूख लगने पर जंगल के फल या कंद-मूल खाना इनकी जीवन शैली है। शरीर पर कपड़े हैं या नहीं, इसकी इन्हें कोई चिंता नहीं होती, बस जंगल में जहां इच्छा हुई बैठ गए और आराम कर लिया। पत्थर की गुफा में दोनों सबर परिवार खाना बनाते हैं और रात को सोते हैं। दिन जंगल में, तो रात गुफा में बीतती है। रात के समय रोशनी के लिए आग जलाकर रखते हैं। इन दो सबर परिवारों में एक के मुखिया का नाम सुरू सबर और दूसरे का नाम कोचाबुधू सबर है। सुरू सबर अपनी पत्नी सुकमति सबर के साथ रहता है। कोचाबुधू सबर का परिवार थोड़ा बड़ा है। उसमें उनकी पत्नी सुनमणी सबर, बेटे शंभू सबर और मंगडू सबर, बेटी चंपा सबर के साथ ही मां सनीबारी सबर भी हैं। ये सब यानी दोनों परिवारों के ये आठ से दस लोग गुफा में रहते हैं। जिन चट्टानों की गुफा में ये रहते हैं, उन्हीं चट्टानों के ऊपर सबर बच्चे खेलते भी हैं।

ये लोग बच्चों को बचपन से ही पत्थरों पर चढ़ना भी सिखाते हैं। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह होती है उनकी सुरक्षा की चिंता। पत्थरों पर चढ़ना जानने पर उनके लिए संकटों में खुद को बचाना आसान हो जाता है। दूर-दूर तक जंगल और पहाड़ होने के कारण हाथियों और जंगली जानवरों का भय बना रहता है। इनसे बचाव के लिए इन लोगों ने पेड़ पर मचान बना रखी है। मचान इनकी रक्षा का दूसरा बड़ा साधन है। जब कभी खतरा हुआ, सब लोग मचान पर चढ़ जाते हैं और वहीं से हाथी भी भगाते हैं। कभी-कभी ये लोग यहां थोड़ी-बहुत खेती भी करते हैं। ओडिशा और झारखंड की सीमा पर स्थित पहाड़ियों में बसा सबर परिवार झारखंड में है या ओडिशा में, इसके बारे में स्थानीय प्रशासन को भी कोई खास जानकारी नहीं है। जो सबर जनजातियां गावों में हैं, वे भी खतरनाक दौर से गुजर रही हैं। पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क (पीएचआरएन) का एक शोध बताता है कि एक हजार सबर लोगों में हर साल 10 लोगों की मौत हो जाती है।

रिपोर्ट के अनुसार सबर समुदाय के पांच साल से कम उम्र के 68 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से काफी कम है। कुपोषण की वजह से 56 प्रतिशत बच्चों में नाटेपन और 42 प्रतिशत बच्चों में दुबलेपन की समस्या है। प्रति एक हजार पर 131 लोग बीमार हैं। इनमें टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों का ज्यादा प्रकोप है। बता दें कि यह सर्वे वर्ष 2017 में पूर्वी सिंहभूम के डुमरिया प्रखंड में 284 सबर परिवारों के बीच किया गया था। झारखंड की कुल जनसंख्या 3,29,66,328 है, जिसमें महज 9698 सबर हैं। पूर्वी सिंहभूम में महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज के सह अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती सबर जनजाति के मरीजों के आंकड़े बताते हैं कि यहां 45 वर्ष से अधिक उम्र के मरीज कभी भर्ती नहीं हुए हैं। जो भर्ती हुए उनमें से करीब 50 फीसद मर जाते हैं। जमशेदपुर के घाटशिला प्रखंड में दारी साईं सबर बस्ती में आज से पांच साल पहले सबर जनजातियों के 25 परिवार रहते थे, अब उनकी संख्या पांच बची है।

विशद कुमार
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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