अंधेरी दुनिया की चौखट पर

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मोहिनी नट (बदला हुआ नाम) घुमंतू समुदाय से हैं। सड़क किनारे बैठकर गुब्बारे, झाड़ू, फूस के घोड़े-हाथी बेचती थीं। कोरोना में सब बंद है। गांव में खेल-तमाशे पर भी रोक लग गई। दुकानदार ने राशन देना बंद कर दिया, फाके करते 15 दिन गुजरे। बताती हैं कि पास के गांव के एक व्यक्ति ने 1500 रुपये की मदद की तो राशन आया। लेकिन बदले में उसने कहा कि मुझे एक दिन उसके यहां रहना होगा। यह कहानी अकेले मोहिनी की नहीं है। जयपुर शहर से करीब 10 किलोमीटर दूरी पर‘कानोता’ है। ये घुमंतुओं का डंपिंग यार्ड है। शहर से घूमंतुओं को पकड़कर यहीं पर छोड़ा जाता है। यहां गंदगी के ढेर पर करीब 3000 घुमंतू परिवारों के डेरे हैं, जिनमें 25 घुमंतू समुदायों के लोग रहते हैं। बीपीएल कार्ड तो दूर, इनमें कइयों के पास आधार कार्ड भी नहीं हैं। बुजुर्ग या विधवा पेंशन भी नहीं मिलती। ये सभी समुदाय खेल-तमाशा दिखाकर, जड़ी-बूटी बेचकर, मूर्तियां, फूस के हाथी, घोड़े और ऊंट, मिट्टी के खिलौने, झाड़ू बनाकर, साड़ियों पर जरी-गोटा लगाकर या बेलदारी करके जीते रहे हैं। लॉकडाउन में पिछले ढाई महीने से सब बंद है।

चूंकि यह शहरी क्षेत्र में आता है तो यहां मनरेगा भी नहीं है। लॉकडाउन में सरकार ने राशन भी नहीं दिया। 25 मई को नवभारत टाइम्स में लेख छपने के बाद सरकार ने इनका नाम सूची में जोड़ा है, जिसके बाद इन्हें अगले दो महीने 5-5 किलो अनाज मिलेगा। यहां एक-एक परिवार में 10 से 12 लोग हैं, पांच किलो अनाज हफ्ते भर भी नहीं चलता। अजमेर, कंजर समुदाय की लड़की प्रीति (बदला हुआ नाम) साड़ियों पर जरी-गोटा लगाती हैं। काम महीन है, फिर भी दिन भर में 40 रुपये कमाती थीं। लॉकडाउन में यह बंद है। चकरी नृत्य करती हैं, मगर तमाशे भी बंद हैं। कहती हैं कि परिवार को जिंदा रखना है, तो अब यही ‘आखिरी उपाय’ बचा है। हालात यह हैं कि राजस्थान व मध्य प्रदेश में नट, कंजर, पेरना, बावरिया, बेड़िया, गिलारा ओर जोगी आदि घुमंतू समुदाय की बेटियों पर देह व्यापार और मानव तस्करी का बड़ा खतरा छा चुका है।

घुमंतू समुदायों के इतिहास में एक ब्रेक पॉइंट सन 1871 में आया था, जब अंग्रेजों ने इनको जन्मजात अपराधी करार दिया था। फिर एक ब्रेक पॉइंट सन 1952 में आया, जब भारत सरकार ने इन्हें विमुक्त जाति का दर्जा तो दिया, लेकिन इनके सिर पर अभ्यस्त अपराधी कानून भी मढ़ दिया, जो आज भी जारी है। ऐसा लगता है कि 60 लाख की आबादी वाले घुमंतू समुदाय के इतिहास में तीसरा ब्रेक पॉइंट लॉकडाउन के साथ ही आ चुका है। राजस्थान में घुमंतू समुदाय की लाखों बेटियां और स्त्रियां हैं। इन समुदायों में नट, कंजर, पेरना, गिलारा, सिंगीवाल, कुचबंदा, जोगी, वाड़िया, बावरिया, साठिया ओर बेड़िया आदि हैं। इनकी 99 फीसदी महिलाओं व बच्चों में कुपोषण और भुखमरी फैली है। राजस्थान सरकार के इस वर्ष के बजट में घूमंतू समुदायों की 60 लाख जनसंख्या के लिए कोई प्रावधान नहीं हुआ। मध्य प्रदेश में घुमंतुओं के 70 लाख की आबादी वाले 61 समुदाय हैं, उनका भी वही हाल है।

लॉकडाउन में राजस्थान सरकार ने स्ट्रीट वेंडरों को 2500 रुपये तो मध्य प्रदेश सरकार ने मजदूरों को खाते में 1000 रुपए दिए। मगर दोनों ही प्रदेशों ने घुमंतुओं को एक रुपये भी नहीं दिए। सबको 5-5 किलो अनाज दिया, मगर इन समुदायों को इससे भी बाहर रखा क्योंकि इन्हें तो ये सरकारें पहले ही अमीर मान चुकी हैं। राजस्थान में 94 फीसदी तो मध्य प्रदेश में 84 फीसदी खानाबदोशों को बीपीएल कैटिगरी से बाहर रखा गया है। घुमंतू समुदायों के लिए संगीत नाटक अकादमी है, प्रदेशों में कला केंद्र हैं, माटी एवं शिल्प कला बोर्ड और घुमंतू बोर्ड हैं। फिर ट्राइफेड भी है जिसका काम इनके हाट और मेले लगवाना और उनका हस्त शिल्प खरीदना है। ढाई महीने का लॉकडाउन गुजर गया, अनलॉक-1 भी शुरू हो गया, लेकिन इन सबकी सारी गतिविधियां बंद पड़ी हैं। इसके चलते घुमंतू समुदाय नर्क के ऐसे द्वार पर खड़ा है, जहां से वापसी आसान नहीं है।

अश्विनी शर्मा
( लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )

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