अनुचरों की झांझरें और समय का घर्घर-नाद

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अब से 42 बरस पहले एक फ़िल्म आई थी ‘घर’। उसमें गुलज़ार का लिखा एक गीत लता मंगेशकर ने गाया था–’आजकल पांव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’। राहुलदेव बर्मन ने इन शब्दों को ग़ज़ब की धुन में बांधा था। जब रेखा विनोद मेहरा को निहारते हुए पूछती थी कि ‘बोलो, देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए’ तो चवन्नियां बरसने लगती थीं। मैने 2015 में फरवरी के पहले सोमवार को उसी अदा में चवन्नियां बरसते दोबारा देखीं। दो फरवरी का दिन था। इसलिए याद है कि उस दिन मेरी उस बेटी का जन्म हुआ था, जिसके अंतर्मन का एक हिस्सा पूरी तरह अपने बाप पर गया है। तो, उस दिन, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी राजधानी के द्वारका इलाक़े में एक चुनावी सभा में ज़ोर-शोर से बरस रहे थे। दिल्ली की विधानसभा के चुनाव थे। नरेंद्र भाई को प्रधानमंत्री बने जुम्मा-जुम्मा आठ महीने हुए थे। सो, उनके अधरों पर, उनकी देह-भाषा में, उनकी स्वर-लहरी में, उनकी तमाम वैचारिक-शारीरिक अदाओं में, पांव ज़मीं पर नहीं पड़ने का तराना ही खिलखिलाता नज़र आता था।

तो, नरेंद्र भाई ने कुछ ताने की मुद्रा में, कुछ विपक्ष को पूरी तरह अपने ठेंगे पर रखने की मुद्रा में और कुछ छप्पन-छाती मुद्रा में पूछा कि मित्रों, पेट्रोल की कीमतें कम हुई कि नहीं हुई हैं? आपके पैसे बच रहे हैं कि नहीं बच रहे हैं? और, जैसा का उस वक़्त का दस्तूर था, भीड़ ने जवाब दिया, हुई हैं, बच रहे हैं। अपनी प्रजा के इस जवाब से नरेंद्र भाई की बांछें खिलीं और उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ कि मोदी किस्मत वाला है। फिर उन्होंने अपना मस्तक ऊंचा कर अंतिम अस्त्र फेंका कि जब मेरे भाग्य से देश का भला हो सकता है तो आप किसी दुर्भाग्यशाली को अपना वोट क्यों देंगे? भीड़ ने अपनी तालियों-थालियों की चवन्नियां जनसभा में तो बरसा दीं, लेकिन चुनाव के नतीजे जब आए तो 70 सीटों वाली दिल्ली-विधानसभा में नरेंद्र भाई की भाजपा को सिर्फ़ 3 सीटें मिलीं।
मगर इससे अपने भाग्य पर उनकी इतराहट कम नहीं हुई। पांच साल बाद, इस बरस की शुरुआत में, फिर दिल्ली के चुनाव हुए। भाजपा तब भी दहाई का अंक नहीं छू पाई। बावजूद इसके, अपने नरेंद्र भाई की भाग्य-रेखा पर भाजपा का ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ भाव बना रहा।

इसके बाद तीन महीने भी नहीं बीते हैं कि भाजपाई ठोड़ी पर हाथ रखे सोच रहे हैं कि नरेंद्र भाई की भाग्य-रेखा पर आगे कितना भरोसा रखें! भाजपा के कई छोटे-बड़े पुराने नेता निजी बातचीत में फुसफुसाते हैं कि नरेंद्र भाई के प्रधानमंत्री बनने के ढाई साल तक तो सब ठीक-ठाक चलता लगता था, लेकिन उसके बाद से तो वे जिस-जिस काम में हाथ डाल रहे हैं, नतीजा उलटा ही निकल रहा है। नोट-बंदी की, गले पड़ गई। जीएसटी लाए, जी का जंजाल बन गई। राफेल विमान ख़रीदे, बवाल हो गया। किसानों की ख़ुदकुशी ने बवंडर मचा दिया। संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता पर संजीदा संदेह खड़े हो गए। मीडिया के गोदीकरण ने जगहंसाई कराई। सोशल मीडिया पर अनुचरों ने नफ़रत के बीजों की ऐसी बौछार की कि हर तरफ़ थू-थू होने लगी। ‘घर में घुस कर मारने’ का ज़ुमला आतंकवादी हमलों के न थमने से फुस्स हो गया। विदेश नीति के हलके में खंदक-खाई खुद गए। रही-सही कसर इस कोरोना-विषाणु के विमूढ़-प्रबंधन ने पूरी कर दी। इस दौर ने जैसा व्याकुल और भ्रांत प्रधानमंत्री देखा, भारत ने किसी दौर में नहीं देखा था।

सो, आज भाजपा के विवेकवान चेहरे और संघ-कुनबे के अर्वाचीन विचारक भीतर-भीतर खदबदा रहे हैं। हर उपलब्धि की माला अपने गले में डाल लेने को आतुर प्रधानमंत्री को आज की आपद्-स्थिति में उन्हीं के हाल पर छोड़ देने के लिए व्यग्र मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-अफ़सरों के साए आपको दिख रहे हैं कि नहीं, मालूम नहीं, मगर राजतंत्र के अंतःपुर में सब इसे देख रहे हैं। दो महीने से ज़रा ज़्यादा ही फु़रसत है तो यादों की बारात रोज़ निकल रही है। जब वह निकलती है तो उसकी बेसुरी सरगम से कई राग बाहर झांकने लगते हैं। सो, मुझे 2017 के सितंबर का आख़िरी सोमवार भी याद आ रहा है। उस दिन भारतीय जनता पार्टी ने ’नरेद्र भाई का स्वप्न साकार करने के लिए’ छह सूत्री कार्यावली अंगीकार की थी। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने 25 सितंबर को प्रस्ताव पारित किया कि वह भारत को 2022 तक ग़रीबी, आतंकवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार और अस्वच्छता से मुक्ति दिला कर ही दम लेगी। आइए, हम सब 2022 के आख़िरी शनिवार का, यह प्रार्थना करते हुए, इंतज़ार करें कि नरेंद्र भाई की अगुआई में उस दिन ये छह पनौतियां भारत की धरती से विदा ले लेंगी।

ढाई साल बाकी है और ढाई चाल वाले नरेंद्र भाई हमारे बीच हैं तो सब मुमक़िन है। फिर भी अगर आपको लग रहा है कि पिछले वर्षों में ग़रीबी तो और भी ज़्यादा अनिष्टकारी हो गई है, आतंकवाद से निपटने की हमारी रणनीतियां नतीजे नहीं दे रही हैं, जातिवाद और गहराता जा रहा है, सांप्रदायिकता ने समाज को पहले से भी अधिक बांट दिया है, भ्रष्टाचार असंगठित से संगठित क्षेत्र में चला गया है और स्वच्छता के नाम पर हल्लागुल्ला ही ज़्यादा मचा है तो मैं आपके इस देश-विरोधी नज़रिए का साथ नहीं दे सकता। आप में होगा, मुझ में, चपट नंगी आंखों से देखते-भालते हुए भी, यह सब सोचने-कहने का पराक्रम नहीं है। जो था भी, वह दो महीने की नज़रबंदी के हवाले हो गया है।

आने वाले दस-पांच साल कैसे कटेंगे, इसी फ़िक्र में करवटें बदल रहा हूं। सो, व्यवस्था बदलने की राह में आपके साथ चलने को बाद में कभी सोचूंगा। ज़रा भी अंदाज़ होता कि ये दिन भी देखने पड़ेंगे तो इंतज़ाम कर के रखता। साढ़े तीन साल पहले भी ऐसे ही गच्चा खा गया था। तीसियों बरस से दीवाली, होली, रक्षा-बंधन, करवा चौथ, जन्म दिन, परिणय-दिवस, वगैरह-वगैरह के सहेजे मां-पत्नी-बेटी के लिफ़ाफ़ों को भी नरेंद्र भाई की दीमक रात आठ बजे के बाद चार घंटे के भीतर चट कर गई थी। अब फिर चार घंटों के भीतर ऐसा दीवाला पिटा कि किसी से कह भी नहीं सकता। पता होता तो पहले ही नगलागढ़ू चला जाता। पर अब इंद्रप्रस्थ में फंसा हूं तो सरकारी स्कूल के सामने जा कर भोजन-राशन की कतार में खड़ा होने के लिए सचमुच बहुत हिम्मत चाहिए।

ग़रीबों की तरफ़ से आंखें फेरने में नरेंद्र भाई कितने ही भट्ठर हो जाएं, मेरी आंखों मे तो इतना पानी शेष है कि मरते मर जाऊंगा, हाथ फैलाने तो नहीं जाऊंगा। प्रभु मेरा यह नयनजल ताज़िंदगी क़ायम रखे। दुःखों के पहाड़ तो चढ़ने ही होते हैं। ग़रीब चढ़ेंगे। मगर सुखों की मीनार से भर्तारों के रपटने का भी समय आता है। वह समय दूर से आता दिखाई देने लगा है। भाग्यशालियों की कुंडली में उलटबांसी के नगाड़े सुनाई देने लगे हैं। अनुचरों की झांझरों के बीच उनका शोर कब तक दबा रह पाएगा? इसलिए जिन्हें यह ख़ामख़्याली है कि उनका जन्म नहीं, अवतरण हुआ है, मैं उनसे हाथ जोड़ कर विनती करना चाहता हूं कि अब भी वक़्त है कि सुकर्मों के कुछ रत्न धारण कर लें, पश्चात्ताप के कुछ मंत्रों का जाप कर लें और आत्मग्लानि की बूंदों से स्वयं की ग्रह-शांति कर लें। देर तो वैसे ही हो चुकी है। कल और देर हो जाएगी। इसलिए समय के रथ का घर्घर-नाद समय रहते सुन लें। समय रहते गुन लें।

पंकज शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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