विस्थापितों का दर्द

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प्रवासी श्रमिकों के पलायन को लेकर जो सूचनाएं आ रही हैं वे मानवीय संवेदनाओं को बेहद झकझोरने वाली हैं। विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र में ऐसी स्थिति बनेगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। परंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि जिस स्थान पर रहकर ये श्रमिक राष्ट्र के उत्थान में अपना सहयोग कर रहे थे, वहां इनकी सुविधाओं व भोजन आदि का इंतजाम क्यों नहीं हो पाया? क्या वहां का समाज इतना निष्ठुर है कि उन्होंने श्रमिकों के प्रति अपने दायित्वों को नहीं निभाया। जिनके लिए ये श्रमिक कार्य कर रहे थे, उन नियोक्ताओं ने अपना मुंह जिमेदारियों से क्यों मोड़ लिया? यह प्रश्न हमेशा समाज के समक्ष अनुारित रहेगा। अगर वहां के समाज, नियोक्ताओं व स्थानीय प्रशासन ने सहयोग दिया होता तो इतनी संख्या में श्रमिकों का पलायन नहीं होता। विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र में इस तरह की दारुण स्थिति की तस्वीर नहीं बनती। ‘अतिथि देवो भव:’ के सिद्धांत पर अपना जीवन व्यतीत करने वाला भारत इस पर मौन क्यों है? आखिर प्रगति में इन श्रमिकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है।

विपरीत परिस्थितियों में क्यों नहीं स्थानीय लोगों के हाथ मदद को आगे बढ़ रहे हैं। क्या पलायन कर रहे श्रमिकों का कोई मानवाधिकार नहीं है। हजारों की तादाद में पंजीकृत एनजीओ कहां हैं? क्या यह समाजसेवा का क्षेत्र नहीं है। इन श्रमिकों की स्थिति संवेदनशील व्यक्ति के लिए उद्वेलित कर देने वाली है। ट्रकों में भूसे की तरह ठूंस कर जाते समय वृद्ध की जीवनलीला समाप्त हो जाती है। पैदल चल रही 12 साल की बच्ची गर्मी व थकान से अपना दम तोड़ देती है। थक जाने पर छोटा बच्चा सूटकेस पर बैठकर यात्रा करता है। गर्भवती महिला रास्ते में सड़क के किनारे प्रसव वेदना के उपरांत नवजात शिशु को जन्म देती है। एक घंटा आराम करने के बाद पुन: अपने घर की तरफ चल देती है। हां, रास्ते में एक परिवार नवजात शिशु को कपड़ा देकर मानवता की मिसाल प्रस्तुत करता है। पैदल चल रहे श्रमिकों को बस कुचल देती है। निरीह कई श्रमिकों की जान चली जाती है। ट्रेन श्रमिकों को रौंदते हुए चली जाती है। बस व ट्रक की दुर्घटना में कई श्रमिकों ने अपनी जांन गंवा दी। गर्मी के महीने में छोटे बच्चों व महिलाओं का सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा करना कितना दुरूह होगा, इसका आंकलन करना शायद संभव नहीं है।

कितनी विपरीत परिस्थितियों में पलायन का निर्णय लिया गया होगा। हालांकि प्रदेश सरकार ने दुर्घटना में मृत और घायल श्रमिकों को आर्थिक सहायता का ऐलान करके कुछ आंसू पोंछने का कार्य किया है परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। श्रमिकों को लेकर नौकरशाह अनाप-शनाप टिप्पणी कर रहे हैं, असमानजनक व्यवहार कर रहे हैं। इस पर भी लगाम लगाना जरूरी है। ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, जिससे अन्य अधिकारियों व कर्मचारियों के समक्ष उदाहरण बन सके और वे अपना व्यवहार संयमित रख सकें। एक यक्ष प्रश्न सबके सामने यह है कि पैदल चल रहे इन प्रवासी मजदूरों पर स्थानीय प्रशासन की नजर क्यों नहीं पड़ती? पैदल जा रहे श्रमिकों को क्यों नहीं स्थानीय प्रशासन वाहन उपलब्ध कराकर गंतव्य तक भेजता है। उनकी सुख सुविधाओं का क्यों नहीं ध्यान रखा जा रहा है?

स्पेशल ट्रेन में श्रमिक मृत मिलता है, क्या उसे रास्ते में चिकित्सकीय सुविधा मिली थी, यह व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह है? रही बात विशेष ट्रेनों के संचालन का तो इनकी संख्या क्यों नहीं बढ़ाई जा रही है? अगर इनकी संख्या बढ़ जाय तो श्रमिकों को सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा नहीं करनी पड़ेगी। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि गुजरात में स्थानीय प्रशासन यात्रियों को वापस आने के लिए अनुमति नहीं दे रहा है। निष्कर्ष यह है कि सरकार व समाज दोनों को ही पलायन कर रहे श्रमिकों की तरफ ध्यान देना होगा। यदि कष्टप्रद स्थितियों में पलायन कर रहा श्रमिक अपनी कटु स्मृतियों के चलते संकट समाप्त होने पर महानगरों की ओर नहीं लौटा तो उन कल-कारखानों, निर्माण कार्यों व सेवाक्षेत्र का क्या हाल होगा, यह कहना मुश्किल होगा? यह दौर है इन विस्थापित श्रमिकों का ध्यान रखने और हमदर्दी जताने का। जितना हो सके समाज व सरकार को इनकी मदद करनी होगी।

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