कोरोना के दौर में भारत की विदेश नीति

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कोरोना के इस दौर में भारत की विदेश नीति का क्या हाल है ? इसमें शक नहीं कि भारत की केंद्र और राज्य सरकारें कोरोना से लड़ने में जी-जान से जुटी हुई हैं। सभी पड़ौसी देशों के मुकाबले भारत में कोरोना सबसे ज्यादा फैला है, हालांकि जनसंख्या के अनुपात में वह ज्यादा नहीं है। फिर भी जहां तक विदेश नीति का प्रश्न है, वह काफी हद तक सार्थक और सफल रही है। सबसे पहली बात तो यह कि पड़ौसी देशों (दक्षेस) और ब्रिक्स देशों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सामूहिक संवाद किया और व्यक्तिगत तौर पर उनके नेताओं को फोन भी किए। इन देशों को कुनैन की दवाई निःशुल्क भिजवाई और दक्षेस राहत कोष में प्रचुर अनुदान भी दिया। नेपाल, मालदीव और कुवैत में हमारी सेना के डाक्टर भी गए। अमेरिका और लातीनी अमेरिका के देशों के राष्ट्रपतियों ने भारत का आभार माना है और यहां तक कहा है कि हम भारत की मदद कभी नहीं भूलेंगे। भारत ने चीनी जांच-यंत्रों को रद्द कर दिया है, इसके बावजूद चीन के साथ संबंध सहज बने हुए हैं।

कोरोना की लड़ाई में वह भारत के साथ है। मोदी ने लगभग तीन दर्जन देशों के नेताओं से इस बीच सीधी बातचीत भी की है। इन देशों में अमेरिका और यूरोप के देश तो हैं ही, अफ्रीका, पश्चिम एशिया और पूर्व एशिया के देश भी शामिल हैं। तबलीगी-जमात के मामले को लेकर कुछ मुस्लिम राष्ट्रों में भारत के विरुद्ध जनमत खड़ा करने की कोशिश की गई थी लेकिन हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री उनके नेताओं के साथ संपर्क में हैं। कुवैत से जारी हुए बयान और ट्वीटों की जांच पर मालूम पड़ा कि वे फर्जी थे। प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया ने दो-टूक शब्दों में कहा है किसी जमात की गल्तियों का ठीकरा देश के मुसलमानों के सिर नहीं फोड़ना चाहिए। मेरा अंदाज है कि मुस्लिम राष्ट्रों के साथ दोस्ती का लिहाज ही है, जिसके कारण मौलाना साद की अभी तक गिरफ्तारी नहीं हुई है। इसके अलावा भारत ने चीन के वुहान और ईरान में फंसे लोगों को लौटा लाने की भी मुस्तैदी दिखाई है।

मेरी राय में कोरोना के इस दौर में भारत अरबों-खरबों रु. कमाने का मौका चूक रहा है। यदि वह अपनी हवन-सामग्री और काढ़े का प्रचार और निर्यात करता तो सारी दुनिया उसके चरणों में बिछ जाती। इस समय खाड़ी देशों में 80 लाख प्रवासी भारतीय कार्यरत हैं। अकेले केरल के चार लाख लोगों ने घर-वापसी की अर्जी डाल रखी है। इन लोगों को उचित रोजगार मिल सके और भारत की अर्थव्यवस्था संभल सके, इसके लिए भारत सरकार उन सब कंपनियों को आकर्षित करने में जुट गई है, जो चीन से विदा हो रही हैं। अगले साल भारत सुरक्षा-परिषद का (अस्थायी) सदस्य बन जाएगा और विश्व स्वास्थ्य संगठन का महासचिव भी कोई भारतीय ही होगा। ऐसी स्थिति में विश्व राजनीति में भारत की हैसियत कुछ ऊंची ही उठेगी। देखना यही है कि कोरोना के वक्त जो तालाबंदी की गई है, उसे भारत सरकार किस चाबी से कैसे खोलती है।

 

 

डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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