पिछले एक माह से मैं निरंतर याद दिला रहा हूं, चार बातों की। एक, तबलीगी मौलाना साद की गैर-जिम्मेदाराना हरकत के लिए देश के सारे मुसलमानों पर तोहमत नहीं लगाई जानी चाहिए। दूसरी, विषाणु से लड़ने में हमारे आयुर्वेदिक (हकीमी भी) घरेलु नुस्खों का प्रचार किया जाए और घर-घर में भेषज-होम (हवन) किया जाए। तीसरी, जो लोग, खासतौर से प्रवासी मजदूर, अभी तक अधर में लटके हुए हैं, उनकी घर वापसी का इंतजाम हमारी केंद्र और राज्यों की सरकारें करें। चौथी बात, कोरोना की लड़ाई में अंग्रेजी के अटपटे शब्दों की बजाय हिंदी के सरल शब्दों का प्रयोग किया जाए।
मुझे खुशी है कि इन चारों बातों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब दो-टूक शब्दों में दोहराया है। कोई बात नहीं, देर आयद्, दुरुस्त आयद ! यदि इन बातों पर महिने भर पहले से ही अमल शुरु हो जाता तो भारत में कोरोना उतना भी नहीं फैलता, जितना कि वह अभी थोड़ा-बहुत फैला है। देश के 101 अफसर बुद्धिजीवियों ने घुमा-फिराकर मीडिया, भाजपा और सरकार पर तबलीगी जमात को लेकर सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप लगाया है। यह आरोप निराधार था लेकिन अब भागवत के बयान के बाद उनकी गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए। कुछ टीवी चैनलों को संयम बरतने की बात तो मैं पहले ही कह चुका हूं। मोदी ने भी अपनी ‘मन की बात’ में मुसलमानों के लिए अपनी बात बहुत अच्छे ढंग से कही है। उन्होंने कहा है कि रमजान के दिनों में इस बार घर में रहो और अल्लाह की इबादत जरा ज्यादा करो।
आयुर्वेदिक नुस्खों का सम्मानपूर्ण उल्लेख मोदी ने जरुर किया लेकिन उस पर जोर नहीं दिया। इस संबंध में स्वास्थ्य मंत्री, आयुष मंत्री और उनके अफसरों से मेरी बात बराबर हो रही है लेकिन उन्होंने बहुत देर कर दी है। उन्हें याद दिलाऊं कि 1994 में जब सूरत में प्लेग फैला तो मेरे आग्रह पर गुजरात के मुख्यमंत्री छबीलदास मेहता ने काढ़े और हवन-सामग्री के लाखों पूड़े बंटवाए थे। प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंहराव ने उन्हें प्रोत्साहित किया था। अपने आपको भारतीय संस्कृति के योद्धा कहनेवाले संघी और भाजपाई इस मौके पर आगे क्यों नहीं आते ?
प्रवासी छात्रों और मजदूरों की घर वापसी में केंद्र सरकार अंडगा नहीं लगा रही है, यह अच्छी बात है और मुझे यह भी अच्छा लगा कि कोरोना से संबंधित जिन अंग्रेजी शब्दों की मैंने हिंदी बताई थी, उसका अनुकरण मोदी और मोहनजी, दोनों करने लगे हैं, जैसे (सोश्यल डिस्टेंसिंग) सामाजिक दूरी नहीं, शारीरिक दूरी। लेकिन देश के बड़े हिंदी अखबारों के मालिकों से मेरे कहने के बावजूद हमारे पत्रकार भाई अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त नहीं हुए हैं। वे अभी भी तालाबंदी को ‘लाॅकडाउन’ लिख रहे हैं।
डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)