पिछले दो हफ्तों से अधिकांश दुनिया लॉकडाउन में है। कई बार अपनी खिड़की के सामने खड़े होकर मैं बाहर देखती हूं। कभी कोई बस या कार सूनी सड़कों से गुजरती है या साइकिल पर कोई अकेला आदमी या फिर कोई कुत्ता इन गलियों में यहां- वहां देखता हुआ घूम रहा होता है। यह शायद ही वह दुनिया है, जिसे मैं जानती थी। जब अपने फोन की ओर देखती हूं, जो आजकल बहुत होता है सिवाय वायरस के बारे में सलाह की झड़ी के इनमें यह सीख होती है कि आजकल बंदी में दिन कैसे बिताएं या फिर दुनियाभर से खाली शहरों, सड़कों या चौराहों के वीडियो। सोशल मीडिया पर प्रकृति का पुनरुत्थान भी बार-बार आने वाला विषय है। सड़कों पर चलते हाथी, बॉबे हाई में व्हेल (शायद फेक) और दिल्ली में बहती नीली यमुना इनमें हैं। कई बार यह जिदंगी छलावा जैसी लगती है। जब मैं सुबह उठती हूं तो पहला विचार आता है कि ‘क्या यह बुरा सपना है?Ó जैसे-जैसे सुबह बीतती है, हर दिन की एकरूपता मुझे घूरती है। यह समय बहुत चुनौतीपूर्ण और कष्टकारी है। मैं उत्साहित रहने की कोशिश करती हूं, रोज एम्सरसाइज भी करती हूं, घर से और घर पर वे काम भी कर रही हूं, जिनकी मुझसे उम्मीद की जाती है और तारों को भी देखती हूं जो प्रदूषण घटने से अब ज्यादा चमकते हैं।
इसके बावजूद मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं जिंदगी के लिए तरस रही हूं, कम से कम उस जिंदगी के लिए जो इस वायरस के आने से पहले मुझे लगती थी कि मेरी है। मैं उत्कंठित हूं पार्क में घूमने, बाजार जाने, मूवी देखने, दोस्तों व रिश्तेदारों से मिलने और उन्हें गले लगाने के लिए। इन सालों में इन साधारण सी चीजों का मैंने कोई मोल नहीं समझा, असल में कभी इनके बारे में सोचा ही नहीं, अचानक यह वह संपति बन गई जिसके लिए मैं कामना करती हूं। तैयार होकर काम पर जाना ऐसी चीज है, जिसे लेकर हर कोई कभी न कभी रोना-धोना या मजाक करता हो। आजकल इसके लिए प्रतीक्षा रहती है। घर से काम चल रहा है, लेकिन कार्यस्थल की गूंज, एक-दूसरे से मिलना जैसी सांसारिक चीजों का मूल्य अब स्पष्ट हो रहा है। स्क्रीन की अपनी उपयोगिता है, लेकिन अपने चारों ओर अन्य लोगों की मौजूदगी की ऊर्जा कुछ ऐसी चीज है जो वह कभी आत्मसात नहीं कर सकती। खाली स्टेडियम में खेल रहे खिलाड़ी कभी आकर्षक नहीं दिखते। कोविड-19 पर विजय तो होगी ही, चाहे वह दवा से, समय के साथ या प्रकृति से हो। तब यह दुनिया को कैसे बदलेगा? यही सवाल है जो आज हमें सबसे अधिक घेरे हुए है। पहले की सभी महामारियों ने हमारे रहने का वह तरीका बदल दिया था, जिसमें हम सालों से हफ्ते आए थे। एक बड़ी जनसंख्या को मिटाने वाले 1337 के प्लेग ने इंग्लैंड में संपत्ति कानूनों की शुरुआत की, हमें क्वारेंटाइन शद दिया और मध्यम वर्ग को जन्म दिया।
हैजे की महामारी ने कचरा निपटान का तंत्र बनाने व स्पेनिश फ्लू ने जनस्वास्थ्य प्रबंधन के क्षेत्र में बड़े परिवर्तन की शुरुआत की। हमारे समय में सार्स महामारी ने ताइवान सहित अनेक देशों ने यह सुनिश्चित किया कि लोग नियमित रूप से मास्क पहनेंगे। युवाल हरारी जैसे लेखक देशों द्वारा अधिक निगरानी के प्रति चेताते हैं, क्योंकि तकनीक का इस्तेमाल मरीजों व उनके संपर्कों पर नजर रखने के लिए हो रहा है। शिक्षाविद् और पूर्व राजनयिक किशोर महुबानी एक अधिक चीन केंद्रित वैश्वीकरण की बात करते है, जबकि राजनयिक रिचर्ड एन. हास इस महामारी के बाद अधिक असफल देशों के उभरने के प्रति चेताते हैं। लेकिन व्यक्तिगत परिवर्तन के बारे में क्या? अभी हम लोग वायरस की हमारी जिंदगी को बदलने की क्षमता को लेकर अभिभूत हैं। एक बहुत ही गहरी भावना है कि जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं होगी। हमारी जिंदगी के नए हीरोस्वास्थ्य कर्मी, पुलिस और सफाईकर्मी हैं, जो दुनिया को चालू रखे हुए हैं। ऐसी उम्मीद है कि ये सभी विचार और मूल्य यह सब खत्म होने के बाद भी रहेंगे। हालांकि, एक तुच्छ संदेह भी है। जब हम वायरस को हरा देंगे औैर अपनी जिंदगी जीने के लिए स्वतंत्र होंगे तो भी क्या ये सभी चीजें याद रखेंगे?
साधना शंकर
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके अपने विचार हैं।)