विपक्षी एकता : पानी का बुलबुला

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आपस में मनभेद व मतभेद भी इतने हैं कि एक-दूसरे का चेहरा बर्दाश्त नहीं करते लेकिन संर-संग दिल्ली फतह करने को निकल पड़े हैं। तो कैसे मान लिया जाए कि ये विपक्षी एकता हकीकत है? कहीं ये फसाना तो नहीं है? वैसे भी लाख टके का सवाल ये है कि अगर विपक्षी एकता है तो फिर कांग्रेस लोकसभा चुनाव में किस-किस दल से लड़ेगी?

पुरानी कहावत है- घर में सूत ना कपास और जुलाहे से लट्ठम-लट्ठा। यही हाल उस विपक्षी जमघट का है जो शनिवार को ममता के मंच पर कुछ इस अंदाज में दहाड़ रहा था जैसे दिल्ली का ताज उनके सिर जनता रखने ही वाली है। कहने को दल भले ही वहां 15 जुट गए हों लेकिन कुल मिलाकर 125 सीट के दायरे वाले ये दल किस बिना पर ये दावा कर रहे थे कि पीएम का फैसला बाद में कर लेंगे? राजनीति संभावनाओं का खेला भेले ही हो लेकिन 125 सीट वाले ना तो राजपाट पाते और अगर पा भी जाते हैं तो चला नहीं पाते। हैरानी तो इस बात की है इस विपक्षी एकता की छलनी में इतने छेद हैं कि जहां से कब कौन नीचे टपक जाए खुद इन झंडाबरदारों को भी पता नहीं। आपस में मनभेद व मतभेद भी इतने हैं कि एक-दूसरे का चेहरा बर्दाश्त नहीं करते लेकिन संग-संर दिल्ली फतह करने को निकल पड़े हैं। तो कैसे मान लिया जाए कि ये विपक्षी एकता हकीकत है? कहीं ये फसाना तो नहीं है? वैसे भी लाख टके का सवाल ये है कि अगर विपक्षी एकता है तो फिर कांग्रेस लोकसभा चुनाव में किस-किस दल से लड़ेगी? हर जगह तो उसके सामने भाजपा भी है और महाभारत की तरह ये कथित अपने भी।

कमाल देखिए- ये विपक्षी भाजपा भगाओ, देश बचाओ का नारा लगा रहे हैं और खुद अपने मोहल्ले की चौदीदारी कर रहे हैं, कहीं अपने ही कब्जा ना कर बैठें? क्या इस बिना पर एकता है? क्या अविश्वास के वातावरण में कोई सफलता पाई जा सकती है? रैली में राहुल गांधी और सोनिया गांधी क्यों नहीं थे? अगर कांग्रेस को क्षेत्रीय दल अछूत मान रहे हैं तो फिर किस आधार पर देश की सत्ता के ख्वाब ये दल देख रहे हैं? राजनीति का मौजूदा दौर साफ बता रहा है कि बिना भाजपा व बिना कांग्रेस कीी सरकार नहीं बनाई जा सकती तो फिर क्षेत्रीय दल कांग्रेस को आंख क्यों दिखा रहे हैं? ऐसे में कैसे माना जा सकता है कि विपक्ष में एकता है? क्या साफ नहीं झलक रहा है कि हर राज्य में ज्यादातर गठजोड़ चुनाव बाद के ज्यादा मोलभाव के लिए बना रहे हैं? सबको लहता है कि भाजपा अगर जाएगी तो कांग्रेस की कप्तानी में सरकार अगर बनी तो वो तभी अपना दबदबा सरका में कायम कर सकते हैं जब उनके पास सीटें ज्यदा होंगी। इसी वजह से कांग्रेस से दूरी है।।

मंज पर मौजूद 20 नेताओं में से ढेरों ऐसे हैं जो कांग्रेस से किनारा कर चुके हैं तो फिर कैसी विपक्षी एकता? अगर मंच पर आ सकते हैं तो फिर मिलकर लड़ने से परहेज क्यों? क्या ये सब मिलकर भाजपा को हराने के लिए चुनावी मैदान में जाएंगे? जवाब अगर पहले ही ना हैं तो जनता इनके मंसूबों पर हां की मुहर क्यों लगाए? कांग्रेस भी कह चुकी है कि दिल चाहे ना मिलें कम से कम हाथ ही मलि लिए जाएं तो शायद कुछ बात बने।

यूपी में कांग्रेस को भाजपा से भी लड़ना है और सपा-बसपा से भी तो कमजोर कौन होगा? जाहिर सी बात है विपक्ष तो फिर विपक्ष का ये कैसा विजन ? जहां सत्ता से मोदी हटाने की बात तो की जा रही है लेकिन कैसे हटाएंगे ये किसी क पता नहीं दिल्ली में कांग्रस को भाजपा से भी लड़ना है और आप से भी तो कहां है विपक्ष एक? ममता खुद ऐलान कर चुकी हैं वो बंगाल में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेंगी। तेलंगाना के हाल भी यही हैं। ऐसे में ये मानने में क्या हर्ज है कि ये फुलाए जा रहे गुब्बारे ज्यादा दिन के नहीं।।

लेखक
डीपीएस पंवार

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