गुटबाजी का नतीजा

0
352

ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बगावत के बाद ही मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इधर बीते दो हतों से कांग्रेस के 22 विधायकों को लेकर भी हाईवोल्टेज ड्रामा जारी था। सुप्रीम कोर्ट में भी कांग्रेस की तरफ से समय निकालने के लिए नई पेशबंदियां वकीलों के जरिये हो रही थीं। पर तमाम नानुकूर के बाद आखिरकार शुक्रवार के लिए लोर टेस्ट की नौबत आ ही गयीए जिससे कांग्रेस भलीभांति अवगत थी। इसीलिए कमलनाथ के लिए भी शायद सदन का सामना करने से पहले ही पद से इस्तीफा देना एक वाजिब कदम ही था। अब राज्य में बीजेपी के दोबारा साा में आने की बस संवैधानिक औपचारिकता भर रह गई है। पर मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य के हाथ से निकलने के बाद भी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व नहीं चेता तो फिर यही कहा जा सकता है, इस पार्टी का आने वाले वर्षों तक कुछ भी नहीं हो सकता। पहले भी कांग्रेस केन्द्र की सत्ता से बाहर रही है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण धुरी रही है।

वर्तमान स्थिति यह है कि शेष विपक्ष एक धुरी की तलाश में बिखरा हुआ है और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व लगातार छीजते अपने प्रभाव से बेखबर दिखाई देता है। सोचिए, 15 साल मध्य प्रदेश में सत्ता में रही भाजपा को डेढ़ वर्ष की दूरी भी मन मसोज कर सहनी पड़ी। सत्ता से विदाई के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार पहले की तरह सक्रिय और कमलनाथ सरकार की नीतियों को लेकर हमलावर रहे। सत्ता वापसी की यह भूख जहां बीजेपी के नेताओं में दिखती रही, वहीं कांग्रेस डेढ़ दशक बाद मध्य प्रदेश की सत्ता में वापसी के बाद आपसी गुटबाजी में पहले से ज्यादा उलझी दिखाई दी। शीर्ष नेतृत्व राज्य की गुटबाजी से वाकिफ रहा है। फिर भी उससे निपटा कैसे जाए, इस बारे में तनिक भी प्रयास नहीं दिखा। सभी जानते हैं राज्य में दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया का गुट अहम है। दोनों के अपने समर्थक हैं। छिंदवाड़ा तक सियासी हनक रखने वाले कमलानाथ को बतौर मुख्यमंत्री राज्य की राजनीति में इंट्री एक तीसरा गुट भी वजूद में आ चुका था।

हालांकि चलती दिग्विजय सिंह की ही रही है, इसीलिए जानते हुए भी कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया की आंख में चुभते रहे। वैसे उन्हें यह भरोसा था कि नाराज विधायकों को दिग्विजय सिंह मनाने में कामयाब हो पाएंगेए पर ऐसा नहीं हो सका। एक महत्वपूर्ण राज्य कांग्रेस से छिनने के बाद राजस्थान और देर सबेर महाराष्ट्र का भी नंबर आ सकता है। राजस्थान के अशोक गहलौत और सचिन पायलट के मतभेद किसी से छिपे नहीं हैं। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के ऐसे सीनियर नेता जिन्हें सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली, सरकार अस्थिर किए जाने की वजह बन सकते हैं। ऐसी स्थिति में शीर्ष नेतृत्व को सक्रिय होने की जरूरत है। पार्टी को सबसे पहले स्थायी अध्यक्ष की दरकार हैए भले ही एक बार फिर राहुल गांधी के हाथ में कमान हो। कम से कम संगठन के भीतर चल रही अफरातफरी को तो विराम लगेगा। गुटबाजी तो हर पार्टी में होती है, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। लेकिन इससे पार्टी का वजूद ही खतरे में पडऩे लगे तो सचेत होने की जरूरत है। इस वक्त कांग्रेस के साथ कुछ ऐसा ही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here