सीएए पर सरकार अडिग

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देश के कई हिस्सों में दिल्ली के शाहीन बाग धरने की तर्ज पर चल रहे धरने से ताखकर मोदी सरकार ने एक बार फिर नागरिकता संशोधन पर अपना रूख साफ करते हुए कहा कि कानून किसी भी हाल में वापस नहीं होगा। रविवार को देश के गृहमंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल में थे। अपनी सरकार का इरादा स्पष्ट करते हुए कहा कि 70 साल से नागरिकाता का इंतजार कर रहे शरणार्थियों को वह हक देकर ही दम लेंगे। कई बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी यही बात दोहरा चुके हैं। सर्वोच्च अदालतों में सीएए के खिलाफ दर्जनों याचिकाएं लबित हैं। विरोध में धरने पर बैठे लोग भी अडिग हैं दिल्ली फिलहाल दंगे की आग में इसी सबके चलते झुलस चुकी है। चाहे-अनचाहे समर्थन और विरोध की धारणा बलवती हो रही है। यह सब देश के अमन-चैन के लिहाज से कतई ठीक नहीं है। अफसोसनाक यह है कि हमारे सियासतदान नेताओं का निश्चित तौर पर अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता है और जब ऐसे ही लोग कटुता और वैमनस्य के बलबूते अपना सियासी भविष्य गढऩा चाहते हैं तब परिस्थितियां जटिल हो जाती है।यह वाकई चिंताजनक है कि सीएए में जो है कि डराय गये लोग कानून को बिना जानेपढ़े उसके खिलाफ हो रहे हैं। विपक्ष निश्चित तौर पर अपनी रचनातक भूमिका से बहुत दूर हो गया है। अशांति में उसे अपने लिए संजीवनी की अनुभूति हो रही है।

पर सत्ता पक्ष क्या कर रहा है? बीजेपी के नेताओं को तो चल रहे कुप्रचार के खिलाफ संजीदगी से अभियान चलाना चाहिए। मात्र कह देने से बात नहीं बनती बल्कि इसके लिए जन-जन तक पहुंचने के लिए संयम भी बरतना पड़ता है। स्थिति यह है कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं का बयान ही विपक्ष की ढाल बन गया है। अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा से लेकर कपिल मिश्रा तक नफरत पैदा करने करने वाले बयानों के बरक्स असुद्दीन ओवैसी से लेकर वारिस पठान तक के नफरत भरे बयान असल औचित्य को प्रभावहीन कर देते हैं। शायद एक गिरिराज सिंह इस तरह के बयानों को लेकर पार्टी और सरकार की किरकिरी के लिए काफी नहीं थे। इसीलिए ऐसे लोगों की एक लबी फेहरिस्त सामने है। विपक्ष के नेताओं की जुबान बिगड़ी हुई है, यह उतनी चिंता की बात नहीं है। जितनी सत्ताधारी दल के नेताओं के बिगड़े बोल से हैं। जो सत्ता में होते हैं उन पर देश चलाने की जिम्मेदारी होती है। चुनाव तक तो चलिए सब ठीक है किसने क्या कहा लेकिन चुनाव बाद तो उस पर सबको, देखने की जिम्मेदारी होती है।

यदि एक जमात के मन में आशंका है तो उसे दूर किये जाने का प्रयास होना चाहिए। यहां तो उलटे उसे ही निशाने पर लेकर शायद अपनी बात रखी जा रही है। जो सत्ता में होते हैं उनके बोल की अहमियत ज्यादा होती है। शायद यह तथ्य ध्यान से उतर गया है वरना कपिल मिश्रा जैसे लोगों को कुछ भी बोलने की आजादी नहीं दी जाती। अब यह तय है कि विरोधी नेताओं के बयानों पर कोई सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए तो इसके पहले भी सीएए विरोधियों के मन में भय को मजबूत किया है। क्या बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अपने नेताओं पर नजरें तिरछी करने को तैयार है? यदि है, तभी यह सुलग रहा असंतोष समाप्त किया जा सकता है। दिल्ली तमाम चौकसी के बीच तनावपूर्ण शांति के दौर में है। शांति बहाली के लिए धर्मगुरूओं के भी तीव्र पहल की है। पिछले दिनों आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक एवं आध्यात्मिक गुरू श्री रविशंकर ने भी प्रभावित इलाकों में दौरा कर लोगों की पीड़ा का जाना-समझा। यह स्वागत योग्य है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को भी खुद लोगों के बीच इस परिस्थिति में दिखना चाहिए। पुलिस ने दंगाग्रस्त इलाकों की गहरी छानबीन शुरू की है।

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