तालिबान समझौता के बाद आखिर भारत क्या करें ?

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क़तर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ है, यदि वह लागू हो सका तो दक्षिण एशिया में शांति के नए युग की शुरुआत होगी। अफगानिस्तान में जाहिरशाह के तख्ता-पलट (1973) के बाद से आज तक इतनी अस्थिरता बनी रही है कि उसके कारण पाकिस्तान, भारत और ईरान तो परेशान रहे ही हैं, आतंकवाद ने अमेरिका को भी दहला दिया था।

अफगानिस्तान से तालिबान की सत्ता खत्म की 2002 में अमेरिकी और नाटो फौजों ने लेकिन पिछले 18 साल में वे अफगानिस्तान पर काबू नहीं कर पाए। अमेरिका ने वहां अपने 3500 सिपाही खोए और अरबों-खरबों डाॅलर गवां दिए। डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनते वक्त वादा किया था कि वे अमेरिकी फौजों को अफगानिस्तान से हर हाल में वापस बुला लेंगे।

अब उनका सीना गर्व से फूल सकता है लेकिन जैसी कि कहावत है कि काणी के ब्याह में सौ-सौ जोखिम होती है। यह समझौता सफल हो जाए, तभी उसको सफल मानना चाहिए। पहली बात तो यह कि अभी काबुल सरकार और तालिबान के बीच समझौता होना बाकी है। यदि दोनों के बीच दंगल जारी रहता है, मतभेद रहता है तो अमेरिका के साथ हुआ समझौता बेकार हो जाएगा।

अभी तो यही नहीं पता कि काबुल में किसकी सरकार है ? अशरफ गनी की या डाॅ. अब्दुल्ला की ? दोनों के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। मान लें कि अमेरिकी दबाव में ये दोनों नेता अपना झगड़ा झुलझा लें तो भी क्या गारंटी है कि वे तालिबान से समझौता कर लेंगे ?आधे अफगानिस्तान पर पहले से तालिबान का कब्जा है। क्या गनी और अब्दुल्ला उन्हें आधी सत्ता सौंप देंगे ? वे आधी सत्ता स्वीकार क्यों करेंगे ? उन्हें पाकिस्तान और अमेरिका का समर्थन पहले से ही प्राप्त है। इसके अलावा तालिबान के पास अफीम की आमदनी इतनी ज्यादा है कि वे अपनी स्वतंत्र सरकार खुद चला सकते हैं।

अफगान फौज में भी पठानों की संख्या सबसे ज्यादा है। तालिबान मूलतः गिलजई पठानों का संगठन है। अमेरिकी फौजों की वापसी के 14 महिनों के दौरान तालिबान शांति कैसे बनाए रखेंगे ? उनके कई समूह अपनी मनमानी के लिए कुख्यात हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत के विदेश सचिव इस मौके पर काबुल गए। ज्यादा अच्छा होता कि हमारे विदेश मंत्री भी दोहा में होते, जैसे कि अमेरिकी और पाकिस्तानी विदेश मंत्री वहां हाजिर थे। इस समय जरुरी यह है कि भारत काबुल सरकार और तालिबान के साथ भी सीधे संपर्क बनाए रखे। तालिबान जब काबुल में सत्तारुढ़ हुए थे तो उनके नेता मुझसे काबुल, लंदन, न्यूयार्क और जर्मनी में बराबर मिलते रहते थे। हमारे अपहत जहाज को छुड़वाने में हमने उनसे मदद भी ली थी। यह सही समय है, जबकि हम पाकिस्तान से भी संवाद शुरु कर सकते हैं।

डा. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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