देश का सिस्टम क्रोनी या भ्रष्ट, निकम्मा ?

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भारत का कौन खरबपति फिलहाल मन ही मन बम-बम होगा ? जवाब है मुकेश अंबानी और उनकी जियो कंपनी। देश की पुरानी-स्थापित टेलीकॉम कंपनियां बरबादी की कगार पर हैं। ये दिवालिया होंगी तो जियो टेलीकॉम की चांदी है। भारत में सरकार, अदालत, मीडिया सबका कैसे इस्तेमाल कर एकाधिकार बना देश को, लोगों को चूना लगाना है, बिना लाइसेंस के टेलीकॉम की झुग्गी-झोपड़ी बना कर सीडीएमए तकनीक से सस्ती सेवा के बहाने रिलायंस कम्युनिकेशन का बाजार में छा कर बाकी कंपनियों को नानी याद कराते हुए, ग्राहकों को, बैंकों को चूना लगाने की दास्तां को लोग भूले नहीं हैं तो मुफ्त सेवा से जियो की एकाधिकारी रणनीति को भी हर समझदार बूझता है। क्रोनी पूंजीवाद और भ्रष्ट सिस्टम, निकम्मी सरकार व नेताओं के राज में अरबपति-खरबपति कैसे बना जाता है इसकी भारत दास्तां दुनिया में इसलिए् अनूठी है क्योंकि अच्छी-अच्छी विदेशी कंपनियां, देश के पुराने घराने (टाटा, बिड़ला, वाडिया) भी धागे से लेकर पेट्रोलियम-गैस, रिटेल, टेलीकॉम जैसे तमाम धंधों में चोरी, ऊपर से सीनाजोरी के अंदाज में मां भारती को लूटने में जैसे निर्लज्ज रहे हैं वैसे पुतिन के क्रोनी खरबपति भी नहीं रहे! इस वास्तविकता में भारत का राजा कोई हो, मनमोहन सिंह हों या नरेंद्र मोदी हमेशा सिस्टम, अफसर क्रोनी पूंजीवाद के सेवादार हैं। अनिल अंबानी ने बैंकों को चूना लगाया, कंपनियों को दिवालिया बनाया लेकिन फिर भी वे मोदी सरकार के लाड़ले हैं।

मुकेश अंबानी और उनकी रिलायंस कंपनियों पर बैकों की इतनी लेनदारी है कि सच्चा आंकड़ा जान सकना, ग्रुप कंपनियों की सेहत की हकीकत जानना भी आसान नहीं है तो सरकारी कंपनी के गैस कुओं से गैस की चोरी के लंबे चौड़े मामले और जुर्माने में बावजूद मोदी सरकार में हिम्मत नहीं जो कंपनी और मालिक को सार्वजनिक तौर पर दागी करार दे वसूली करे! वह खेल चुपचाप मकड़ी के तानेबाने के साथ स्थायी है, जिसमें एक धंधा पीटे तो दूसरा फैल जाए। तभी नोट रखें कि पेट्रोल का धंधा पीटेगा तो हवा की टेलीकॉम तरंगों पर मोनोपॉली बनेगी। मकड़ी का जाला पेचीदा और दूरदृष्टि वाला है। फिलहाल मामला दूरसंचार का है। नोट करें कि सुप्रीम कोर्ट के शुक्रवार के डंडे ने टेलीकॉम की स्थापित कंपनियों एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया को कगार दिखा दी है।इस डंडे पर प्राथमिक सवाल है कि पूरे मामले को क्रोनी पूंजीवाद कहें या अफसरशाही की हिमाकत या मंत्री की लापरवाही या भ्रष्टाचार या मोदी सरकार की नीयत का घोटाला जो 1.47 लाख करोड़ रुपए की वसूली अटूबर से अब तक रूकी रही। क्यों? और शुक्रवार को जब सुप्रीम कोर्ट का 15 फोन कंपनियों को फरमान हुआ तो सरकार ने या सरकारी कंपनियों को भी पेमेंट का अल्टीमेटम दिया? सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने फटकारा।

तीन जजों की बेंच के जस्टिस अरुण मिश्रा ने फटकार लगाई कि ‘कैसे सरकार का एक डेस्क ऑफिसर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तामील रोक सकता है? क्या इस देश में कानून नहीं रहा.. मुझे लगता है इस अदालत, इस सिस्टम में मुझे काम नहीं करना चाहिए? मैं ऐसे गुस्साता नहीं हूं लेकिन मुझे समझ नहीं आ रहा है कि इस देश और इसके सिस्टम में काम कैसे हो सकता है’। यहीं नहीं मोदी सरकार के सॉलिसीटर-जनरल तुषार मेहता से जस्टिस मिश्रा ने पूछा- इस देश में हो क्या रहा है? किसी भी कंपनी ने अभी तक एक पैसा अदा नहीं किया और आप लोगों के ऑफिसर की ऐसी जुर्रत, हिम्मत जो हमारे आदेश को स्टे किए हुए है?..आपका डेस्क ऑफिसर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रोके हुए है! या वह सुप्रीम कोर्ट के ऊपर बैठा है? क्या सुप्रीम कोर्ट का कोई मतलब नहीं है? यह और कुछ नहीं सिर्फ पैसे की ताकत का प्रमाण है? सोचें, माईबाप पाठक, इस सबका क्या अर्थ निकालें? क्या एक मामूली डेस्क ऑफिसर ऐसी हिम्मत कर सकता है? क्या मजाल है जो मंत्रालय का एक मामूली डेस्क ऑफिसर दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद और मंत्रालय के सचिव अंशु प्रकाश के कहे क्या जानकारी के बिना सुप्रीम कोर्ट के इतने बड़े-भारी आदेश पर अमल रूकवा दे, जिससे दिवालिया भारत सरकार को 1.47 लाख करोड़ रुपए मिलना है?

या मंत्री रविशंकर प्रसाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बिना पूछे या विचार किए देश की 15 खरबपति कंपनियों से बकाया वसूली रोके रखने का रुख बनाए रख सकते हैं? एक रपट अनुसार दूरसंचार मंत्रालय के डेस्क ऑफिसर का नाम मंदर देशपांडे है। वह भारतीय लेखा व वित्त सेवा का अफसर है। उसने कंपनियों से वसूली शुरू करने से रोकने का 23 जनवरी का आर्डर दूरसंचार विभाग के सदस्य (वित्त) पीके सिन्हा की मंजूरी से जारी किया। फिर इसी ऑफिस के दूसरे डायरेटर अंकुर कुमार ने डीओटी संदस्य (वित्त) की मंजूरी से अगला आदेश जारी किया। सोचें, आदेश है सुप्रीम कोर्ट का। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और कंपनियों के लिखित एग्रीमेंट के सत्य में एकुमुलेटेड ग्रॉस रेवेन्यू यानी एजीआर पर कंपनियों को पेमेंट का आदेश दिया। यदि आदेश पर सत्य वचन पालन हो तो सरकरार को चार लाख करोड़ रुपए मिलते हैं। इसमें दूरसंचार के धंधे की कंपनियों से सरकार को एक लाख 47 हजार करोड़ रुपए मिलने हैं। अकेले वोडाफोन- आइडिया को 53 हजार करोड़ रुपए, एयरटेल को 35 हजार करोड़ रुपए, खत्म हो चुकी टाटा टेलीसर्विस को कोई 14 हजार करोडड रुपए और बीएसएनएल-एमटीएनएल को भी कुछ हजार करोड़ रुपए देने हैं।

फिर लिखित एग्रीमेंट की सच्चाई में ही सरकार की पेट्रोलियम सेटर की तीन कंपनियों की करीब ढाई लाख करोड़ रुपए की देनदारी सरकार को हैं। इसमें गैस ऑथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड याकि गेलको अकेले कोई डेढ़ लाख करोड़ रुपए चुकाने हैं। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईमानदारी से अमल से केंद्र सरकार का दिवालियापन खत्म होगा। सरकार कभी रिजर्व बैक, कभी कंपनियां बेच या योजना खर्च में कटौती कर जैसे-तैसे पैसे का जो जुगाड़ कर रही है वह पूरा संकट सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल से दूर होता है। अटूबर 2019 में कोर्ट ने वसूली का आदेश दिया था। बावजूद इसके अमल नहीं हुआ। प्रधानमंत्री दफ्तर, मंत्री रविशंकर प्रसाद हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे! क्यों? एक कारण समझ आता है कि वसूली हो तो वैसे ही घाटे और मुश्किल हालातों से गुजर रही टेलीकॉम कंपनियां दिवालिया हो जाएंगी! अपनी जगह चिंता ठीक है पर तब सरकार को क्या सुप्रीम कोर्ट में जा कर पुनर्विचार याचिका दायर नहीं करनी थी। यह संशोधन करवाना भी रास्ता बनवाता कि मूल एजीआर रकम वसूलने की बात हो न कि जुर्माने और देरी के चलते ब्याज भी वसूलें। इससे प्राइवेट कंपनियों पर बोझ कम बनता तो सरकारी कंपनियों से भी सरकार पैसा लेने की सोच सकती थी। मगर मोदी सरकार चुपचाप बैठी रही।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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