संशोधन पर सुप्रीम मुहर

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पिखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून-2018 की वैधता बरकरार रखते हुए केन्द्र सरकार के फैसले पर बीते सोमवार मुहर लगा दी। अब ऐसे मामलों में बिना जांच तुरंत गिरफ्तारी होगी। हालांकि केवल उन्हीं मामलों में अग्रिम जमानत संभाव होगी जहां शुरूआती जांच में कोई मामला नहीं बनता प्रतीत होगा। पहले कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि ऐसे मामलों के जांच के बाद ही आरोपी की गिरफ्तारी हो सकेगी। इसे लेकर सभी पार्टियों ने सरकार पर फैसले में संशोधन करने का दबाव डाला था। देश भर में दलित संगठनों का गुस्सा सड़कों पर दिखा और भाजपा विरोधी दलों की यह भी कोशिश रही कि मोदी सरकार का असली चेहरा दलित विरोधी है। चौतरफा आंदोलनों और संसद के दोनों सदनों में शोर-शराबे व सवालों से घिरी भाजपानीत एनडीए सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा।

उसके खुद के कई दलित सांसदों के बयान भी बगावती आने शुरू हो गये थे। विशेष रूप से हिंदी पट्टी में जहां दलितों का अधिकतम समर्थन भाजपा के साथ रहा। यूपी में तो मायावती जैसी कद्दावर दलित नेता का सूपड़ा साफ हो गया। ऐसे में जरूरी था और इसीलिए कानून में संशोधन हुआ, जिसको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। पर अब सबसे बड़ी अदालत ने भी संसद की मंशा से सहमति जताई है। साथ ही कोर्ट ने साफ किया है कि अगर इस एट के तहत प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है तो कोर्ट एफ आईआर को रद्द कर सकता है। प्रारंभ में जब जांच के बाद ही गिरफ्तारी का फैसला सुनाया गया था, तो उसका आशय यही था कि इस एट के नाम पर किसी बेगुनाह को न सताया जाए। क्योंकि ऐसे मामलों की लम्बी फेहरिस्त रही है, जिको दुश्मनी निकालने की गाज से मामले दर्ज होते रहे हैं और लोगों की तत्काल गिरफ्तारी होती रही है।

गांवों की राजनीति में इसका खूब बेजा इस्तेमाल हुआ। यूपी में तत्कालीन मायावती सरकार में जब ऐसे मामले संज्ञान में आये तो तुरंत गिरफ्तारी में ढील दे दी गई। पर दलित एट के पहले के व्यवस्था से गैर दलितों में एक डर बना रहता कि उन पर कार्रवाई भी हो सकती है। इसी तर्क को लेकर कोर्ट पर सवाल था कि कानून को दंत विहीन करने की कोशिश की जा रही है। पर अब कोर्ट की तरफ से भी हां के बाद केन्द्र सरकार राहत में है। दरअसल 1989 में यह एससी-एसटी एट बना था। बेजा इस्तेमाल की शिकायत पर तुरंत एफ आईआर और गिरफ्तारी पर 20 मार्च 2018 को रोक लगी थी। हालांकि सियासी आंदोलनों के बाद सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने गिरफ्तारी के प्रावधानों में ढील का आदेश वापस ले लिया।

यह माना कि इस समुदाय को भी छुआछूत, दुव्र्यवहार व सार्वजनिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। पर इसके बाद भी जब सियासत नहीं थकी और मोदी सरकार ने पूरे फैसले को ही पलट दिया तो समीक्षा को विकल्प सीमित होना लाजिमी था। यही संतुलित स्वीकृति कोर्ट के सोमवार के फैसले में ध्वनित हुई है। अब उम्मीद की जानी चाहिए जिस बुनियाद पर यह कानून अस्तित्व में आया था, उसके उद्देश्य को बरकरार रखा जाएगा। यह कानून अत्याचार निवारण के मकसद तक व्यवहार में लाया जाएगा। ताकि असल में जो दुव्र्यवहार के दोषी हों उन्हें ही यह एट सबक सिखाने का जरिया बने।

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