संविधान और डॉ. अंबेडकर पर मिथ्याचार क्यों ?

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स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू की पहचान ही बताई थीः ‘सत्य का निष्कपट पुजारी’ यह महज सौ साल पहले की बात है। विवेकानन्द मात्र सैद्धांतिक नहीं, वरन व्यवहारिक स्थिति भी बता रहे थे। जिस के वे स्वयं प्रमाण थे। उन्होंने सारी दुनिया को किसी कपट या लफ्फाजी से नहीं, बल्कि शुद्ध सत्य से जीता था। तब क्या हो गया कि यहाँ हिन्दुओं में दिनों-दिन मिथ्याचार का सहारा लेने की आदत बढ़ती गई ? ताजा उदाहरण लें तो भारतीय संविधान को ‘धर्म-ग्रंथ ‘ और डॉ. अंबेदकर को इस का ‘निर्माता’ बताते हुए दोनों की पूजा जैसी की जा रही है। इस में न केवल करोड़ों रूपये और समय नष्ट हो रहा है, बल्कि लाखों युवा भ्रमित हो रहे है। ऐसे मिथ्याचार की क्या जरूरत है ? इस से लाभ हो रहा है ? क्या हमारे नेताओं के पास सच बोलने के लिए कुछ नहीं बचा, जिस से देश का हित हो ? पहले इस मिथ्याचार का पैमाना देखें। डॉ. अंबेदकर ने मार्च 1953 में राज्य सभा में बाकायदा बयान देकर कहा था कि उन्हें संविधान-निर्माता कहना गलत है। उन्होंने खुद को मात्र ‘भाड़े का लेखक’ बताया, जिस ने वह लिखा जो लिखने कहा गया था।

अंबेदकर ने यहाँ तक कहा कि संविधान इतना बेकार है कि वे इसे ‘जला देने ‘ में सब से आगे होंगे। वह किसी आवेश में कही बात न थी। पुनः सितंबर 1955 में संसद में ही अंबेदकर ने उसे विस्तार से कारण बताकर दुहराया। कि संविधान रूपी मंदिर देवता के लिए बनाया गया था, जिस पर असुरों ने कब्जा कर लिया। ‘इसलिए उसे जला देने के सिवा क्या उपाय है ?’। संसद में की गई इतनी स्पष्ट भर्त्सना के बावजूद अंबेदकर को संविधान-निर्माता कह-कहकर संविधान की आरती उतारना परले दर्जें की बुद्धिहीनता है। इस से कुछ भला नहीं होता। भारतीय लोग संविधान का आदर वैसे भी कर ही रहे हैं। चाहे इस में कितनी भी कमियाँ हों। चाहे इसे और विकृत कर डाला गया हो। इस संविधान ने ईसाइयों, इस्लामियों को दूसरों का धर्मातरण कराने तक का ‘ मौलिक अधिकार ‘ ( अनुच्छेद 25 ) दे डाला, जो दुनिया के किसी संविधान में नहीं। परन्तु यहाँ हिन्दू धर्म को अपनी रक्षा भी करने का अधिकार नहीं। परन्तु यहाँ हिन्दू धर्म को अपनी रक्षा भी करने का अधिकार नहीं दिया। बल्कि ‘धर्म ‘ का संविधान में उल्लेख तक न हुआ ! इस पर संविधान सभा में ही आचार्य रघुवीर ने खूब खरी-खोटी सुनाई थी। फिर भी धर्म की उपेक्षा हुई, जबकि रिलीजन को उच्च-स्थान मिला। आगे इसी संविधान को 1976 ई. में ‘सेक्यूलर’और ‘ सोशलिस्ट ‘ मतवादी बना दिया गया।

उसी आड़ में हिन्दुओं को और नीचे गिराते हुए दूसरे दर्जें का नागरिक बना डाला गया, जिस के अधिकार मुसलमानों, ईसाइयों से कम कर दिए गए। ऐसे संविधान की पूजा करा कर हिन्दू नेताओं को क्या मिल रहा है ? उलर्ट वे देश-विदेश में ‘हिन्दू पक्षपाती ‘ होने की गालियाँ सुन रहे हैं। वह भी तब , जबकि वे वर्षों से गैर-हिन्दुओं को विशेष अनुदान, संस्थान, जमीन, प्रशिक्षण, आदि देते रहे हैं, जिन्हें तवज्जो दी। सच पूछें, तो यह नतीजा लजिमी है ! यदि हिन्दु अपना धर्म, अपनी सत्यनिष्ठा, अपना सदाचरण छोड़ दे, तो उस की मिट्टी पलीद होगी। गाँधीजी ने भी सत्य का आडंबर करते हुए असंख्य बयानों, कार्यें में नितांत असत्य का उपयोग किया। फलतः उन की, और उन की गलतियों से हिन्दुओं की फजीहत हुई। देश-विभाजन हुआ, लाखों हिन्दू-सिख तबाह हुए। क्योंकि मिथ्याचार को प्रश्रय दिया गया। अनुचित, साम्राज्यवादी विचारों, माँगों को ठुकराने, समझाने के बजाए उस की आरती उतारी गई। उस से असत्य प्रबल हुआ, हिन्दु कमजोर हुए। यह सब महान हिन्दु शिक्षाओं, मनीषियों की चेतावनियों की उपेक्षा कर के किया गया। दुर्भाग्यवश, गाँधीजी से लेकर आज तक अनेक हिन्दू ऐसे मिथ्याचारों को अपनी चतुराई व भलमनसाहत समझते रहे हैं। अहंकारवश उन्होंने कभी समीक्षा तक न की कि इस से परिणाम क्या हुए ? वस्तुतः स्वयं उन नेताओं का मोल गिरा।

सत्ता-संसाधन बल पर किए जा रहे अहर्निश प्रचार को हटाकर देखें तो यह स्पष्ट होगा। इस के विपरीत शुद्ध सत्यनिष्ठा से किए गए कार्यों से स्वामी विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, या टैगोर की महत्ता स्थायी बनी। कुछ लोग राजनीति में मिथ्याचार आवश्यक मानते हुए इस का बचाव करते हैं। पहले तो, नियम रूप में यह सही नहीं। आवश्यकतानुसार कोई छिपाना, या बनावटी बयान देना एक बात है। पर अनावश्यक, अनर्गल बातें कहना करना दूसरी बात। इस से लाभ नहीं होता। केवल विश्चसनीयता गिरती है। दूसरे, शिक्षा और बौद्धिक विमर्श में मिथ्याचार कब से जरूरी हो गया ? यह तो कम्युनिस्ट, फासिस्ट, इस्लामी तानाशाहियों का चरित्र रहा है। वे मिथ्या विचारों, मतवादों को जमाने के लिए शिक्षा और विमर्श को उसी अनुसार निर्देशित करते रहे है। इसीलिए, भारत में मिथ्याचार को नीति या शिक्षा में प्रश्रय देना सब से अधिक हिन्दुओं के लिए घातक हुआ है। नागरिकता संशोधन कानून पर चल रहे विरोध में यह देखा जा सकता है। सारे हिन्दू-विरोधी मजे से झूठे प्रचार कर सरकार और हिन्दू समाज को लॉछित कर रहे हैं। क्योंकि हिन्दू नेता सच बोलने से बचते रहे। इस प्रकार, अपनी दुर्बलता प्रदर्शित करते रहे। उन्होंने कभी खुलकर नहीं कहा कि भारत में हिन्दू धर्म का विशेष स्थान है। उन्होंने कभी कम्युनिस्ट, इस्लामी मतवादों को आइना नहीं दिखाया कि वे सदैव सब के लिए हानिकारक रहे हैं।

उन्होंने यहाँ या बाहर हिन्दुओं पर होते अन्याय, उत्पीड़न पर कभी आवाज नहीं उठाई। उन इस्लामी कायदों, जोर-जबरदस्ती, हिंसा का हिसाब नहीं माँगा जो सारी दुनिया में मूलत: एक समान होते रहे हैं। जिन कारण केरल-कश्मीर से लेकर पाकिस्तान-बंगलादेश में हिन्दू पीड़ित और खत्म होते रहे। यदि हिसाब माँगा जाता तो मुसलमानों में आत्म-चिंतन, आत्मावलोकन का दबाव पड़ता। तब वे शाहीन बाग वाली सीनाजोरी नहीं दिखा सकते थे। पर हिन्दू नेता सच्ची बातें कहने, पूछने के बदले झूठे नारों का सहारा लेकर स्वयं को ‘सब का ‘ दिखाने में लगे रहे। गाँधीजी से लेकर आज तक इस विचित्रता में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया। मजे की बात है कि इस पर स्वयं डॉ. अंबेदकर ने गाँधीजी और कांग्रेस की जम कर खिंचाई की थी। उन की पुस्तक ‘ पाकिस्तान या भारत का विभाजन ‘( 1940 ) में विस्तृत विवरण है कि किस तरह गाँधीजी एक-दो मुसलमानों को खुश करने के लिए भी संपूर्ण हिन्दू हितों को बलिदान करते रहते थे। अफसोस ! कि उस के दारुण परिणाम से सीखने के बजाए आज भी हिन्दू नेता बनावटीपन में जी रहे हैं। डॉ. अंबेदकर की भी मूल्यवान शिक्षाएं छोड़ कर उन के बारे में भी मिथ्या-प्रचार उसी का उदाहरण है। इस से किसी पार्टी को चाहे लाभ होता रहे, किन्तु हिन्दू धर्म-समाज की हानि ही होती रहेगी। मिथ्याचार से हिन्दू कमजोर होते हैं, जबकि उन के शत्रु बल पाते हैं। यह सत्य समझना चाहिए।

शशांक शरण
( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं )

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