74 वें वर्ष में एकालाप की अप्रासंगिकता

0
330

आज अंग्रेज़ों की हुक़ूमत से आज़ाद हुए तो हमें 73 साल पूरे हो गए, मगर हुक़्मरानों की ज़ेहनी ग़ुलामी करने से हम अपने को कब मुक्त करेंगे, कौन जाने! देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद साढ़े तीन दशक हमारे हुक़्मरान रहे लोग स्वाधीनता संग्राम की पैदाइश थे। तब तक के हमारे प्रधानमंत्रियों में एक भी ऐसा नहीं था, जिसने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा न लिया हो। उनकी मंत्रि-परिषदों में शामिल लोगों में से अगर किसी इक्का-दुक्का ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं भी लिया था तो कम-से-कम उन्हें जलियावालां-दौर का अहसास तो था।

राज्यों की हुकू़मतें भी इसी परंपरा की पौध के हाथ में थीं। केंद्र से ले कर प्रदेशों तक राजकाज की वह बेल फल-फूल रही थी, जो भारत की क़श्ती को दो सौ बरस की ग़ुलामी से खींच कर बाहर लाई थी और जिसने मुल्क़ की नैया की पतवारें विभाजन के तूफ़ान की त्रासदी के बाद संभाली थीं। सो, वे सब अलग तरह से संवेदनशील लोग थे। वे सब एक अलग जज़्बे से भरे लोग थे। उन सब की धमनियों में एक भिन्न तरंग थी। उनके लिए प्रगति के मायने अलग थे, उनके लिए विकास का अर्थ अलग था, उनके सपनों में आग उगलते भूत-प्रेत नहीं, नेह बरसाती परी-माएं आया करती थीं।

ये साढ़े तीन दशक बीतने के बाद जो तीन दशक आए, वे भारतीय सियासत की हुक़्मरान-मंडली की मूल सोच और कामकाज के तौर-तरीकों में तरह-तरह की सेंधमारी के थे। इस दौर में सकारात्मक आधुनिक नज़रिया रखने वाले नए-नकोर युवाओं ने भी देश-प्रदेशों की कमानें संभालीं और तपे-तपाए चेहरों ने भी। परिपक्व हो चुके युवा तुर्कों ने भी राजकाज चलाया और अपनी अति-महत्वाकांक्षा के चलते भारत की राजनीति को पहली बार अफ़वाहो और झूठ के अखिल भारतीय अखाड़े की सौगात देने वालों ने भी। इस दौर ने सत्ता के लिए विलोम विचारधाराओं के एक मंच पर आने का करतब भी देखा और देश को पहली बार मिली दक्षिणमुखी गठबंधन की सरकार का स्वाद भी चखा।

ये तीन दशक राज्य-सरकारों को मटमैला और बदरंग होते हुए देखने को भी अभिशप्त रहे। राजनीतिक घुड़दौड़ में घोड़ों की नीलामी से हम रू-ब-रू हुए। लहू से लिथड़े पहियों वाले रथ के नीचे कुचलते समाज की दीदार हमें हुआ। आर्थिक उदारीकरण के मयपान से नशीली हुई आंखों में डूबने का आनंद हमें मिला। पता ही नहीं चल रहा था कि भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्कारों में आ रहे परिवर्तन सुरीले हैं या बेसुरे। मगर कुल मिला कर यह दौर भी इसलिए ठीक-ठाक गुज़र गया कि सब-कुछ लुटा कर भी सियासी-संसार की ज़िम्मेदारियां संभाले बैठे अर्थवान हुक़्मरानों का औसत, सब-कुछ लूटने की नीयत से राजनीति की गलियों में जमे बैठे घुसपैठियों से काफी ज़्यादा था।

सो, कोई 65 साल, बावजूद तमाम झंझावातों और शुरू हो चुकी पतन-गाथाओं के, हमारी चारदीवारियां खड़ी रहीं। इसलिए कि उस दौर में न तो विपक्ष को नज़रअंदाज करने की कू्ररतम साजिशें रची गईं और न विपक्ष ने ख़ुद को कभी निष्क्रिय, दिशाहीन और हास्यास्पद होने दिया। विपक्ष की मुंडेर पर दो दीये जलते रहे या दो सौ–उनकी रोशनी हमेशा इतनी दूर से नज़र आती रही कि पूस की हाड़ जमाती सर्दियों में भी दलदली तालाब में नंगे बदन खड़े जन-मानस ने उनके भरोसे रातें काट लीं। हम इसलिए भी नहीं ढहे कि उस दौर में राष्ट्रभक्ति को सीलन भरी सबसे पिछली कोठरी में कै़द कर मुख्य बैठक-कक्ष में तुर्रेदार पगड़ी पहना कर राष्ट्रवाद को बिठाने का पाप करने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ी।

हम इसलिए भी वह दौर पार कर आए कि चाहे कुछ भी हुआ, हमारी सामाजिक शक्तियों ने अपने विवेक का दामन नहीं छोड़ा, हमारी न्यायपालिका ने अपनी नैतिकता से पल्लू नहीं झटका, हमारी कार्यपालिका में केंचुआ-करण का प्रतिरोध करने वालों में जान बाक़ी थी और हमारा मीडिया सू-सू करता हुआ किसी की भी गोद में जा कर नहीं बैठा। देश की इस बुनियादी जिजीविषा ने हमारे जनतंत्र को हर तरह के दचकों से बचा लिया। जन-हित का मूल-तंत्र क़ायम रहा।

लेकिन ये साढ़े छह दशक बीतते-बीतते हमारे आसमान में ऐसी घटाएं उठने लगीं, जिनकी कालिमा ने हम में से बहुतों को अपने मूल-मंत्र भुला दिए। उम्मीदों के कृत्रिम भेड़ाघाट में एक बड़ा तबका बह गया। उन्हें डूबने से बचाने का कर्तव्य जिनके ज़िम्मे था, वे हकबका गए। इतना बड़ा मन-संहार देख कर बुनियादी मूल्यों के बहुत-से जीवन-रक्षक अपनी उद्धारक-भूमिका तज कर राजनीतिक-जल के नए प्रपात में खुद भी कूद गए। इस बवंडर ने पूरे सियासी-क्षितिज पर एक अजीब क़िस्म का अवसाद पसरा दिया।

नए हुक़्मरानों की बांह-उमेठू, गला-घोंटू और बात न मानने पर देशद्रोही करार दिए जाने की आक्रामक करतूतों ने हमारी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक-जगत के तमाम संवैधानिक, सामुदायिक और निजी संस्थानों को पक्षाघात-अवस्था में ठेल दिया। विधायिका बदशक़्ल हो गई। कार्यपालिका बदसूरत हो गई। न्यायपालिका का चेहरा पहचानना मुश्क़िल हो गया। मीडिया के माथे पर कलंक सौ कोस दूर से भी साफ़़ दिखने लगा। सामाजिक-अण्णा धोती उठा कर भाग खड़े हुए। च्यवन ऋषि पंसारी बन गए। साहित्यकार, लेखक, कवि और रंगकर्मी मन मार कर हुक़्मरानों के मन की बात सुनने-गुनने लगे। इतिहासकारों ने अतीत के पुनर्लेखन के बड़े-बड़े ठेके ले कर अपने को कृतार्थ कर लिया। मनोरंजन की दुनिया के कीर्ति-पुरुष और स्त्रियों में एक ज़माने में जो थोड़ा-बहुत कर्तव्य-बोध हुआ करता था, वह भी जाता रहा और ताजा सियासत के पतनाले में वे एक-दूसरे से ज़्यादा नंगा होने की होड़ करने लगे।

महामारी के चलते या उसके बहाने तो हमें अभी पांच महीने से घरों में घुसाया गया है, लेकिन हम अपने-अपने मन-मंदिर के बाहर तो पांच साल से खुल कर टहलने को तरस गए हैं। हमारा तन, हमारा नहीं। हुक़्मरान तय करेंगे कि वह क्या नारा लगाए। हमारा मन, हमारा नहीं। हुक़्मरान तय करेंगे कि उसमें कौन-से विचार हों। हमारा धन, हमारा नहीं। हुक़्मरान तय करेंगे कि बैंक हमें कब और कितना दें। हमारे इंद्रधनुष के रंग अब हमारे नहीं। हुक़्मरान तय करेंगे कि हमें कौन-सा रंग पसंद करना है। अब हम इस एकरंगी दुनिया के बाशिंदे हैं। अब हमें एकालाप सुनना है। अब हमें एकाधिकार भुगतना है। पैंसठ साल में हुआ ही क्या? जो पैंसठ साल में नहीं हुआ, वह इस आधे-पौन दशक में हो गया।

मुझे नहीं मालूम कि लालकिले को आज अपने मन के सूनेपन का कितना अहसास हुआ? मुझे यह भी नहीं मालूम कि लालकिले से इस बार देश को संबोधित करते हुए हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी के मन में सचमुच कोई उछाह था या नहीं? मैं नहीं जानता कि आज़ादी के 74वें बरस में प्रवेश करते वक़्त भारवासियों के मन में कितना उत्साह है? लेकिन इतना ज़रूर मैं जानता हूं कि हम एक बेरतह उकताए हुए मुल्क़ के चश्मदीद हैं। हम भीतर से बिखरन और टूटन का अहसास लिए जी रहे समाज के प्रत्यक्षदर्शा हैं। अब इसकी चारदीवारियों सिर्फ़ बातों से खड़ी नहीं होंगी। फिर चाहे वे बातें लालकिले पर चढ़ कर ही क्यों न की जाएं! यह वह समय है, जब लालकिला अप्रासंगिक नहीं हुआ है, मगर लालकिले की प्राचीर से झरने वाले शब्द अप्रासंगिक हो गए हैं। याद रखिए, समाज कभी अप्रासंगिक नहीं होता है। जब होते हैं, हुक्मरान अप्रासंगिक होते हैं। क्योंकि अपनी तुफ़ैल में वे यह समझ ही नहीं पाते हैं कि वे अप्रासंगिक हो रहे हैं। लेकिन वे तब असामयिक होते हैं, जब समांतर ताक़तों में सामयिक होने की कूवत उपजे।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here