अगर मौजूदा लोकसभा चुनाव में किसी की लहर नहीं चल रही है और यह चुनाव सामाजिक, जाति आधारित स्थानीय मुद्दों पर ही लड़ा जा रहा है तो सबसे अहम सवाल क्या होगा। मौजूदा चुनाव में दलितों का वोट किस तरफ है? उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में दलितों का वोट मायावती की बहुजन समाज पार्टी को मिलता रहा है, लेकिन क्या इस चुनाव में यही स्थिति है?
इस सवाल के जवाब में हमें ये भी देखना होगा कि बीजेपी के बीते पांच साल के शासन में क्या कुछ हुआ है। ये कहा जाता रहा है कि दलितों पर अत्याचार के मामले बढ़े हैं। देश के कई अहम राज्यों से दलितों पर अत्याचार के मामले लगातार सामने आते रहे हैं। इन अत्याचारों के विरोध में प्रदर्शन की खबरें भी आयीं। हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो या फिर गुजरात के उना में दलितों की पिटाई का मामला रहा हो या फिर महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव का मामला हो। इन सबके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन देखने को मिले। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी दलित समुदाय का मुद्दा महत्वपूर्ण साबित हुआ। ऐसे में अहम सवाल यही है कि इस आम चुनाव में दलितों का रूझान किस तरफ है? जिन राज्यों में दलितों पर अत्याचार उन राज्यों में दलितों के वोटिंग पैटर्न पर कोई असर पड़ा है, कोई बदलाव हुआ है?
महाराष्ट्र का वंचित बहुजन अघाड़ी तेज बहस के केंद्र में है। प्रकाश आंबेडकर ने एमआईएम के असुद्दीन ओवैशी से हाथ मिला कर दलित और मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट करने की कोशिश की. वे महाराष्ट्र के प्रयोग को फिर से दोहाराना चाहते हैं। महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हिंसा, एक जनवरी को भड़की थी, जहां यलगार परिषद को लेकर विवाद हुआ था। हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों को इस पृष्ठभूमि में भी देखा जा सकता है. महाराष्ट्र में जिस तरह से नए राजनीतिक गठबंधन बने हैं। उसे देखते हुए माना जा सकता है कि इस चुनाव में महाराष्ट्र के अंदर दलितों की भूमिका निर्णायक होने वाली है।
“इस वक्त स्थिति मोदी और मोदी विरोधी के रूप में बंट चुकी है। दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामलों से नाराज दलित प्रकाश आंबडेकर के साथ जा सकते हैं। आंबेडकर ने ओवैशी से हाथ मिलाया है और मुस्लिम समुदाय के कई पिछड़ों को उम्मीदवार भी बनाया है ताकि गठबंधन का असर हो सके. वे खुद को दलित मतदाताओं तक सीमित नहीं रखना चाहते हैं। हालांकि इस गठबंधन का कितना असर होगा, ये देखना अभी बाकी है। समर खड़से बताते हैं, “आंबेडकर और ओवैशी को लेकर उलझन की स्थिति है। मुस्लिम समुदाय पूरी तरह से एमआईएम के साथ नहीं है। अगर मुसलमान किसी बात पर नाराज होते हैं तो वे कांग्रेस से अलग कुछ स्टैंड लेते हैं। जैसे कि बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद महाराष्ट्र में भी मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था।“ बौद्ध समुदाय का वोट मिलेगा.“ “हालांकि उनका दावा ये भी कि उन्हें 12 बलुतेदार जातियों का वोट भी मिल रहा है, लेकिन ये समुदाय उनके साथ नहीं दिख रहे हैं।
दरअसल ऐसे प्रयोग आसानी से कामयाब नहीं होते. उन्हें कई साल काम करना पड़ता है. कई समीकरणों को साधना होता है. प्रकाश आंबेडकर के साथ वैसा कोई समीकरण नहीं दिखता है. इसलिए वंचित बहुजन अघाड़ी की कामयाबी पर संदेह है।“ अतीत में भी, दलितों का वंचित अघाड़ी की तरह आरडीएलएफ ( रिपब्लिकन डेमोक्रेट लेफ्ट फ्रंट) बना था. उस वक्त भी भीमा कोरेगांव की हिंसा की तरह खैरलांजी का मुद्दा गर्माया हुआ था। लेकिन उसका असर चुनावी राजनीति पर बहुत ज्यादा नहीं पड़ा। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या इस बार तस्वीर बदलेगी? अरुण खोरे बताते हैं, “खैरलांजी तो एक तरह से विरोध करने की सजा थी। लेकिन भीमा कोरेगांव कि हिंसा ने पहचान को भी बदला हैं। विरोध और उसको दबाए जाने की घटना अतीत में कई बार हो चुकी है। लेकिन उस दौरान लोग ये मानते थे कि मौजूदा सरकार वैचारिक रूप से हमारे साथ है। लेकिन भीमा कोरेगांव की घटना ने पहचान को झकझोरा है।“ “आंबेडकर आंदोलन से जुड़े युवाओं को लग रहा है कि उनकी पहचान को चुनौती दी जा रही है। दलितों को फिर से ये लगने लगा है कि जाति के नाम पर उनको दबाने की कोशिश फिर होगी। यही वजह है कि वंचित बहुजन अघाड़ी की सभाओं में भीड़ काफी जुट रही है।“
महाराष्ट्र में कोशिश की जा रही है कि दलित और मुस्लिम मतों को उसी तरह एक साथ लाया जा सके जिस तरह से उत्तर प्रदेश में यादव और दलित वोट बैंक एकजुट हुआ है। ऐसे अहम सवाल ये भी है कि उत्तर प्रदेश में क्या होगा? क्योंकि उत्तर प्रदेश के बिना देश के दलितों की बात नहीं हो सकती है। उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं, इस वजह से भी यह भी सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। खास बात यह है कि यहां दलित किसी दूसरे समुदाय के साथ मिलकर विनिंग कांबिनेशनल बनाते रहे हैं। राज्य में करीब 12 फीसदी दलित मतदाता हैं जो मायावती की बहुजन समाज पार्टी के करीब मानी जाती है जबकि अखिलेश यादव के अपने समुदाय की आबादी नौ फीसदी के आसपास है। चूंकि दोनों पार्टी आपस में हाथ मिला चुकी है, ऐसे में दुनिया भर की नजरें यूपी पर ही टिकी हैं।
लेकिन इस गठबंधन के अलावा एक और बात अहम है, मौजूदा मोदी सरकार के शासन में दलित समुदाय पर अत्याचार के मामले लगातार सामने आते रहे हैं। कंवल भारती कहते हैं, “राज्य में भी बीजेपी की सरकार है। इस दौरान दलितों को पीटा जा रहा है, उनका रोजगार छिना जा रहा है, आरक्षण पर खतरा है। दलितों के जो मुद्दे हैं, उन पर बीजेपी बात नहीं करती है। बीजेपी केवल राष्ट्रवाद की बात कर रही है। दलित मतदाता ऐसे राष्ट्रवाद का मतलब नहीं समझते। वे अत्याचार, आरक्षण और रोजमर्रे की चुनौतियों को देख रहे हैं।“ ऐसे समय में दलितों के बाद मुस्लिम वोट भी अहम वजह साबित होंगे।“ लेकिन इसका फायदा केवल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को होगा। दलित मतदाता ना केवल उत्तर प्रदेश में निर्णायक स्थिति में हैं, बल्कि बिहार में भी वे निर्णायक भूमिका में हैं। उत्तर प्रदेश में, अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन का दलितों पर असर है।
“लेकिन तेलंगाना राज्य बनने के बाद स्थिति में बदलाव दिखा। दलितों पर अत्याचार के मामले तेजी से बढ़े हैं। अत्याचार करने वाले, मौजूदा सरकार का समर्थन करने वाला वर्ग है। किसी एक मामले में न्याय नहीं हुआ है। ऐसे में दलित नाराज तो हैं ही।“ पद्मजा शॉ बताती हैं, “तेलंगाना की राजनीति विचित्र है, हाल मे हुए राज्य चुनाव के दौरान लोग नाराज थे, अपने विधायकों को अपने इलाके में घुसने नहीं दे रहे ते लेकिन रूलिंग पार्टी चुनाव जीत गई, उनके विधायक 30 से 40 हजार के बड़े अंतर से चुनाव जीतने में कामयाब हुए। इस बार देश का चुनाव है लेकिन मुद्दे तो वही हैं। जमीनी स्तर पर दलितों की स्थिति और राजनीतिक समीकरण, मेरे ख्याल से अलग अलग चीजें हैं। ये दोनों एक दूसरे पर बहुत असर नहीं डालते। पैसा, राजनीतिक प्रभाव और पुलिस-प्रशासन गठजोड़ के चलते राजनीतिक दल जैसा चाहते हैं वैसा होता रहा है।“
विश्लेषकों की मानें, तो दलितों पर हुए अत्याचार और उसके बाद राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों का असर दलितों पर पड़ा है और वे रणनीतिक वोटिंग कर रहे हैं। वे स्थानीय तौर पर उन उम्मीदवारों को वोट दे सकते हैं जो बीजेपी और सहयोगियों के उम्मीदवार को हरा सकें। खासकर जिन जगहों पर दलित निर्णायक भूमिका में हैं वहां वे बीजेपी का सिरदर्द बढ़ा रहे हैं।
– सुदेश वर्मा