1867 के गुलामी एक्ट में डिजिटल मीडिया!

0
369

मोदी सरकार 21वीं सदी में 19वीं सदी के अंग्रेजों के एक्ट (भारतीयों को गुलाम बनवाने वाले) में भारत के डिजिटल मीडिया को ले आई है। अंग्रेजों ने 1867 में यह खतरा बूझा था कि भारत के लोग प्रिंटिंग प्रेस आने और उन पर पर्चे व अखबार छाप कहीं आजादी के हरकारे न बन जाएं। अभिव्यक्ति की आजादी अंग्रेज राज के खिलाफ बगावत नहीं बनवा दे। इस सोच में अंग्रेजों ने प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स (पीआरबी) एक्ट, 1867 बनाया। ताकि प्रिंटिंग प्रेस, अखबार, किताबों पर सरकार की नजर रहे और प्रकाशकों-प्रिंटरों-संपादकों को कानून में बांध उनकी अभिव्यक्ति की आजादी को जवाबदेह बनाए रखने का सिस्टम बने। जान लें अंग्रेजों ने इस व्यवस्था की जरूरत इग्लैंड में नहीं मानी। इसलिए क्योंकि गुलाम भारतीयों और आजाद गोरों के कानून एक से नहीं हो सकते। सन् 1867 के एक्ट से ही अंग्रेजों ने 1947 से पहले तक भारत के अखबारों, संपादकों पर नियंत्रण रखा।कई अखबार-पत्रिकाएं-प्रेस बंद करवाई। पत्रकार जेल गए।

तभी हिसाब से इस कानून को 15 अगस्त 1947 के बाद खत्म कर देना था। लेकिन नेहरू सरकार क्योंकि माईबाप, सरकारी नियंत्रणों में अखबारी कागज देने याकि सबकुछ नियंत्रित व्यवस्था में विकास की सोच लिए हुए थी तो आजाद भारत ने भी अंग्रेजों के बनाए 1867के एक्ट को बरकरार रखा। हिसाब से पीआरबी एक्ट 1867 आजाद भारत के 72 साला इतिहास का एककलंक है। आउटडेटेड है। अंग्रेजों के बनाए जैसे सैकेड़ों एक्ट रद्द किए गए हैं उनमें इस एक्ट को भी खत्म किया जाना चाहिए था।

ध्यान रहे दुनिया के किसी सभ्य याकि ब्रिटेन, अमेरिका, यूरोपीय देशों में प्रेस,मीडिया को कंट्रोल करने वाला ऐसा कोई एक्ट नहीं है जैसा भारत में पीआरबी एक्ट 1867 है। ब्रिटेन में रॉयल चार्टर ऑन सेल्फ-रेग्यूलेशन ऑफ द प्रेस में मीडिया के ही दो संस्थान आईपीएसओ और इंप्रेस (IMPRESS) संस्थाएं हैं। तीसरी संस्था ऑफकॉम सोशल मीडिया के उपयोग और साधनों के उपयोग में रिसर्च आदि के लिए बनी है। ऐसे ही यूरोपीय संघ के तमाम देशों में प्रेस के सिर्फ मालिकाना मसले कंपीटिशन लॉ का हिस्सा हैं। उधर अमेरिका में तो पहले संविधान संशोधन से अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा भारी मोल है कि उसके चलते सरकार सोच भी नहीं सकती कि प्रेस के रजिस्ट्रेशन, कागजी कोटे या विज्ञापन या कोई नियंत्रक संस्था बने। वहां फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन को इतना भर अधिकार है कि यदि सार्वजनिक एयरवेव, मतलब टीवी, रेडियो के ब्रॉडकास्ट में ‘अशोभनीय’ प्रसारण हुआ तो वह सुनवाई करके जुर्माना करेगी। इन देशों में अखबार, पत्रिका, किताब, वेबसाइट सामग्री को लीगल डिपोजिट लाइब्रेरी एक्ट (जैसे ब्रिटेन का 2003का) में जरूर अंक, पुस्तक, सामग्री जमा कराते रहना होता है ताकि वह पुस्तकालयों में सुरक्षित रखी जाती रहे और भावी पीढ़ियों के लिए ज्ञान संग्रहित होता रहे!

सोचें, यह है ज्ञान को पूजने वाले समाजों, अभिव्यक्ति की आजादी से देश के खिलने-बनने की समझ लिए लोकतांत्रिक राष्ट्रों की व्यवस्था। जबकि भारत में अंग्रेजों द्वारा लोगों को गुलाम बनाने वाले 1867के पीआरबी एक्ट की न केवल निरंतरता है, बल्कि अब मोदी सरकार ने उसमें 21वीं सदी की अभिव्यक्ति की आजादी याकि वेबसाइट, ई-पेपर, ब्लॉग्स व डिजिटल पेज, फर्रा, पेपर बना कर व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया माध्यम को भी शामिल करने, उसे पाबंद बनवाने का प्रारूप बनाया है। मुझे अंदाज नहीं कि चीन में या उस जैसे तानाशाह देशों में वेबसाइट, ई-पेपर, ब्लॉग्स का रजिस्ट्रेशन सरकार करती है या नहीं। मेरी जानकारी में तो इतना भर दर्ज है कि इटंरनेट पर वेबसाइट का डोमेन वैश्विक तौर पर रजिस्टर होता है और कोई सरकार उसका अपने यहां अलग से रजिस्ट्रेशन करने का एक्ट लिए हुए नहीं है।

तभी सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने पीआरबी एक्ट 1867 को 2019 का जो नया रूप दिया है, उसका जो ड्राफ्ट सार्वजनिक विचार के लिए जारी हुआ है वह दुनिया की एक ऐसी अनहोनी है, जिसे सर्वाधिक क्रूर-तानाशाह देशों में भी नहीं सोचा गया। सोचें, डिजिटल मीडिया को एक्ट में रेग्यूलेट करने का क्या अर्थ है?जब इंटरनेट पर वेबसाइट नाम डोमेन रजिस्ट्रार में रजिस्टर होने की वैश्विक व्यवस्था है तो भारत सरकार के रजिस्टार ऑफ न्यूजपेपर ऑफ इंडिया के यहां डिजिटल मीडिया के न्यूज पब्लिशरों को अपने-आपको रजिस्टर करवाने का क्या मतलब होगा? सरकार को यदि सभी का रिकार्ड बनाना ही है तो वह अपने आईटी विभाग से आईटी के जरिए वैश्विक डोमेन रजिस्ट्रार से क्यों नहीं नाम एकत्र करा लेती है।

मगर सरकार की मंशा रिकार्ड बनाने की नहीं, बल्कि वह सिस्टम बनाने की है, जिससे पहले वेबसाइट मालिकों की लिस्ट बने। फिर उन पर नजर और उन्हें जवाबदेह बनाने के नियम हों, उनकी लोकप्रियता जांचने और अंत में विज्ञापन देने का वह सिस्टम बने, जिसमें वेबसाइट से यदि सरकार खुश हुई तो विज्ञापन की गाजर और नहीं तो रजिस्ट्रेशन कैंसल करने की धमकी के प्रवाधानों में जवाब तलब। नए बिल के ड्राफ्ट में बतौर परिभाषा बताया गया है कि डिजिटल मीडिया पर खबर का मतलब डिजिटाइज्ड फॉरमेट में वह न्यूज जो इंटरनेट, कंप्यूटर, मोबाइल नेटवर्क से प्रसारित की जा सकती है और यह टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो,ग्राफिक का कोई भी फॉरमेट लिए हो सकती है।

नए बिल प्रारूप के सेक्शन 18 में प्रावधान है कि डिजिटल मीडिया पर न्यूज के प्रकाशक को समाचारपत्रों के रजिस्ट्रार के यहां उसकी मांगी गई सभी जानकारियां दे कर अपने आपको रजिस्टर करना होगा।

इस परिभाषा व प्रावधान का अर्थ हुआ कि अंग्रेजों नेप्रिटिंग प्रेस आने के साथ खतरा बूझ गुलाम जनता पर दबिस का एक्ट बनाया तो मोदी सरकार उसी लीक में आधुनिक प्रिंटिग प्रेस याकि इंटरनेट, उसके विभिन्न मंचों (वेबसाइट, यूट्यूब आदि पर टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो,ग्राफिक से न्यूज प्रस्तुति, प्रोग्राम आदि) पर नियंत्रण बना रही है। सीधे इंटरनेट या गूगल जैसी महाबली कंपनियो को कंट्रोल से दुनिया में सरकार बदनाम होती जबकि भारत में लोगो को कानूनी ढ़ाचे की आड में अभिव्यक्ति को कंट्रोलकरना ज्यादा आसान और कम बदनामी वाला तरीका है।

मतलब करोड़ों नागरिक अपने पोस्ट, ग्राफिक, वीडियो, लिखित कंटेंट फॉरमेट में खबर लेने-देने की अभिव्यक्ति की आज जो आजादी लिए हुए हैं उसे सरकार 1867 के अंग्रेजो के एक्ट के नए रूप से नियंत्रित करने की मंशा में है। कस्बों-शहरों में छोटे-मुफसिल पत्रकार आज खबर देने का जो प्रयोग व्हाट्सअप, यू ट्यूब आदि से चलाए हुए हैं उन सबको प्रतिबंधित-नियंत्रित करने का एक ऐसा परोक्ष सरकारी शिकंजा बनने वाला है, जिसके पीछे मूल सोच, मकसद, भावना है कि डिजिटल मीडिया ने अभिव्यक्ति की आजादी के जो करोड़ों फूल खिलाए हैं उसे खत्म करा सबकुछ नियंत्रित हो!डिजिटाइज्ड फॉरमेट की न्यूज परिभाषा में इंटरनेट, यू ट्यूब या फेसबुक, व्हाट्सअप आदि का हर तरह का, हर फॉरमेट का न्यूज, सामयिक प्रोग्राम कवर हो जाना है।

सोचें ऐसी सोच पर! दुनिया में कही भी ऐसीनिरंकुश सोच प्रकट नहीं हुई है। सिर्फ मोदी सरकार में यह आई है तो पहला अर्थ है कि हर तरह के मीडिया को, अभिव्यक्ति की आजादी को कंट्रोल करने की तानाशाही भूख सरकार में गहरे पैठ गई है। दूसरा अर्थ है कि डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी का महत्व सरकार को क्योंकि मालूम है और उसे उसका उपयोग करना है तो यह नियंत्रण से ही संभव है, यह सोचते हुए मोदी सरकार ने आगे का भी रोडमैप बना लिया होगा। पहले रजिस्ट्रेशन, फिर विज्ञापन से ललचाने या डराने का प्रबंध, इस सब पर एक्ट बाद की नियमावली में सोचा जा चुका होगा!

लाख टके का सवाल है कि भारत के लोगों ने 1867 में गुलाम होते हुए तब जैसे पीआरबी एक्ट मजबूरी में माना था वैसे ही क्या पीआरबी एक्ट 2019 भी मान्य होगा? भारत के लोग, आजाद लोग 152 साल बाद क्या यह समझ लिए हुए हैं या नहीं कि मनुष्य के आजाद होने का पहला मतलब है कि वह सोचने, उसे व्यक्त करने, कहने की आजादी लिए हुए हो। अमेरिका यदि आधुनिक वक्त की सिरमौर सभ्यता है तो बुनियादी वजह उसके संविधान का पहला यह संशोधन है कि नागरिक का प्रथम अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी है। इस हकीकत को भी नोट रखें कि हम हिंदुओं को जब तक यह आजादी थी (मतलब विदेशी हमलों से पहले तक) तभी तक हम अभिव्यक्ति की अपनी आजादी में अपनी गौरवमयी सभ्यतागत उपलब्धियां बनाते गए। फिर भले वह वेद रचना हो या महाकाव्य, उपनिषद या दर्शन और शास्त्रार्थ की विभिन्न धाराएं! हिंदू का सनातनी मूल सत्व विचार-मनन की वेद ऋचाओं का प्रस्फुटन है। भारत के ऋषियों से तब यह नहीं सुना गया कि अभिव्यक्ति की आजादी को पहले रजिस्टर्ड कराओ!

संदेह नहीं मोदी सरकार अपनी अल्पकालिक, तात्कालिक सोच, छोटे-छोटे स्वार्थों, वोट की राजनीति में कुंद हो कर भारत और खास कर हिंदुओं के गुलामी वाले डीएनए को और गुलाम बनाने की तासीर में काम कर रही है। तभी हर उस व्यक्ति, नेता, राजनीतिक दल, मीडिया और नागरिक का दायित्व है, कर्तव्य है, धर्म है कि पीआरबी एक्ट 2019 के ड्राफ्ट का विरोध हो। 19वीं सदी के अंग्रेजों के बनाए कानून में 21वीं सदी के डिजिटल मीडिया कोशामिल कर अभिव्यक्ति की आजादी के गला घोटने वाले प्रबंधन का यदि हम-आपने विरोध नहीं किया, उसे यदि संसद का एक्ट बनने दिया तो दुनिया हमें किस निगाह से देखेगी, इसे जरूर ईश्वर के लिए समझें। भारत को इतना बरबाद न होने दें!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here