सौ दिन पूरे, फिर भी अरमान अधूरे

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केंद्र सरकार के द्वारा बनाए गए कृषि कानून के विरोध किसानों के आंदोलन को पूरे सौ दिन हो गए हैं। इस दौरान आंदोलित किसानों ने बेमौसम की बरसात व कड़ाके की सर्दी का सामाना करते हुए इन कानूनों की वापसी को लेकर अपनी मांग पर डटे रहे। किसानों की मांग को नजरअंदाज करते हुए केंद्र सरकार भी अपनी जिद पर डटी हुई है। वह भी कानूनों में संशोधन को तो तैयार है लेकिन कानून वापसी पर टस से मस होने को तैयार नहीं है। आंदोलन की सौ दिन की यात्रा में जहां किसानों ने अपने धैर्य व संयम और शांति का परिचय दिया वहीं गणतंत्र दिवस पर हुई घटना ने जन और तंत्र को शर्मसार कर दिया था। इस घटना के बाद ऐसा लग रहा था कि सरकार किसानों के आंदोलन को बल पूर्वक खत्म कर सकती है। किसान नेता भाकियू प्रवता राकेश टिकैत की आंखों से आंसू निकलना और उनका भावुक होना कमजोर हो रहे आंदोलन को मजबूती प्रदान कर गया। सौ दिन की तपस्या के बाद भी भले ही किसान दिल्ली की सरहदों पर डटे हैं, लेकिन अभी तक उनकी तपस्या का कोई फल उन्हें नहीं मिला है।

सौ दिवसीय आंदोलन के दौरान सैकड़ों किसान अपनी मांगों के लिए शहीद हो गए हो, उनकी खेती भी प्रभावित हो रही हो लेकिन सरकार पसीजने की बजाय इस आंदोलन पर कोरोना का प्रकोप दिखाकर खत्म करने की जुगत में है, वहीं अपने मंत्री, सांसद व विधायकों की टीम बनाकर क्षेत्र में भेज रही है, ताकि वे घर में बैठे किसानों को कृषि कानूनों का महत्व बताकर आंदोलन को तेजहीन कर सकें। इस सौ दिवसीय आंदोलन से एक बात जो उभर आई है वह जाट व मुस्लिमों में जो खाई मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद बन गई थी वह अब पटती नजर आ रही है। जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरणों में बदलाव आने की उम्मीद है। पिछले सात सालों से सियासी जमीन तलाश कर रही राष्ट्रीय लोकदल को राहत मिल सकती है। इसके अलावा आंदोलन को मजबूती देने के लिए आंदोलित किसान नेता आपसी मतभेदों को दूर कर रहे हैं। कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के इरादे बुलंद हो चुके हैं, वह बढ़ती गर्मी से भी दो-दो हाथ करने की तैयारी कर रहे हैं। सीमा पर जमे किसान खुद को गर्मी से बचाने के लिए पंखा, कूलर वगैरह का इंतजाम और टेंट भी पके बनाकर यह जता रहे हैं कि कानून वापसी के बाद ही घर जाएंगे। यदि सरकार अपनी जिद पर डटी है तो वह भी पीछे हटने वाले नहीं हैं।

यही नहीं सीमा से दूर गांव-शहर में बैठे किसानों के परिजन और उनकी परवाह करने वाले भी गर्मी से जंग के लिए खासे इंतजाम करके उनका सहयोग कर रहे है। कृषि कानून विरोधी आंदोलन में लगातार माहौल बदलना इस बात का अहसास दिला रहा है कि किसान आगे की लड़ाई बिना मतभेद के लडऩा चाहते हैं। इसलिए संयुत किसान मोर्चा के नेताओं का रुख भी बदल गया है। उपद्रव के बाद बॉर्डर पर पंजाब से आए अधिकांश आंदोलनकारियों के लौटजाने से आंदोलन स्थल खाली हो गया था, लेकिन इसके बाद हरियाणा के विभिन्न जिलों और आसपास के ग्रामीणों ने मोर्चा को संभाला। इससे आंदोलन स्थल का नजारा ही बदल गया। बदलते माहौल को देखते हुए अब संयुत किसान मोर्चा के नेताओं के भी सुर बदलने लगे हैं। दिल्ली उपद्रव के बाद मोर्चा के जो नेता इसके लिए हरियाणा के लोगों को जिम्मेदार मानते थे, अब वही हरियाणा वालों की शान में कसीदे गढ़ रहे हैं। यह तो पहले से ही माना जा रहा है कि यह आंदोलन लंबा चलेगा लोगों के जुडऩे से उतना ही यह मजबूत होगा।

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