हम शांतिदूतों की दुनिया

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बर्तनों का क्या है बजते ही रहते हैं। इनके बजने से क्या हम विश्व शांति की बात करना छोड़ दें? जब तक अपने ही घर से शांति की बात न करना शुरू नहीं करेंगे तो फिर विश्व शांति दूत कैसे कहलाएंगे। हम किसी वाद-विवाद में अपनी मनोहारी शांतिलाल वाली छवि गंवाना नहीं चाहते। राष्ट्रीय ही नहीं हमें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शांतिवार्ताओं में शिरकत करना है। भला इन छोटे मोटे ठीकरों की ठें-ठें से हम विचलित होने वाले है। हम बंदूक की गोली से नहीं, अपनी वाचाल बोली से विश्वशांति का मार्ग प्रशस्त करेंगे। हमें कोई माई और न ही उसका कोई साल अपनी शांतिप्रिय कार्यों के लिए नहीं रोक सकता है। हम ऐसी भाषा के जानकार है जिससे बड़े-बड़े मंच एक झटके में जम सकते है। हमें टीवी बहसों में बतौर मुख्य वक्ता ऐसे ही नहीं बुलाया जाता है। हमें शांति-वार्ता करने का लंबा अनुभव है। इसकी शुरुआत हमने सबसे पहले अपनी प्रेयसी से ही की थी। हमारी प्रेमिका ने ही हमें शांति वार्ताओं का गूढ रहस्य बताया था और फिर हम उनकी वार्ताओं में नियमित शामिल होकर शांतिदूत कहलाने के सारे तौरतरीके सीख गए।

अब तो हम इस विधा में इतने कुशल हो गए हैं कि दो देशों के बीच शांतिवार्ता तो छोड़ो, हम दो पड़ोसियों के बीच शांतिवार्ता करा दें। आजकल तो हमारी इस विधा का जलवा इतना है कि हम दो कट्टर विरोधी महिलाओं के बीच शांतिवार्ता सम्पन्न करा देते हैं। गंगा-जमुना तहजीब का पाठ हम ही तो अपनी कक्षाओं में सरपट पढ़ाते रहे हैं। हमने ही सर्वप्रथम हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा अपने पट्ठों को दिया था और फिर हमारे पट्ठों ने इस नारे की बदौलत ही चीन की दीवार पर मैराथन दौड़ लगाते शांतिदूत का वैधिक तमगा प्राप्त किया। हमारे पट्ठे छात्र संयुक्त राष्ट्र में शांतिदूत बन गए। किसी भी विश्व मंच पर हमारे विश्वविद्यालय से निकले बुद्धिजीवी ही शांतिवाताओं को सर्वप्रथम पहल करते हैं। अब इससे ज्यादा अपनी विश्व शांति प्रियता व वैश्विक छवि की बात कैसे करें। हमने कितनी ही बार वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ विश्व साहित्य पर चर्चा में भाग लिया है। वैशिक शिष्टमंडलों का प्रतिनिधित्व हमने ऐसे ही नहीं किया है।

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