हथियारों की होड़ की दौड़

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कहा जाता है कि 21वीं सदी एशिया की होगी और इसमें भारत व चीन एक प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरेंगे। बीते दशक में दोनों की धमक दुनिया भर में सुनाई पड़ी। लेकिन हाल के घटनाक्रम संकेत देने लगे हैं कि भारत के लिए आने वाला दशक कई नई चुनौतियां पेश करेगा। बीते दशक में दुनिया के सामरिक समीकरण में भारी उलटफेर की शुरुआत हो चुकी है। 28 देशों के यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर निकलने के बाद ब्रिटेन और यूरोपीय संघ एकजुट रह पाएंगे या नहीं, कहना आसान नहीं है। इसके बाद यूरोपीय महाद्वीप का सामरिक स्वरूप और राजनीतिक भविष्य कैसा होगा, यह अनुमान लगाना भी मुश्किल है। अमेरिका और चीन के बीच जिस तरह आर्थिक और सैन्य टकराव बढ़ रहा है और जिस तरह से चीन अमेरिका के विपरीत अपने को दूसरे ध्रुव के तौर पर स्थापित करने में जुटा है, इसी का नतीजा है कि अमेरिका ने रूस के साथ शीतयुद्ध के दिनों संपन्न इंटरटमीडियट न्युक्लियर फोर्सेज (आईएनएफ) ट्रीटी और सामरिक अस्त्र परिसीमन संधि (स्टार्ट) से यह कह कर हाथ खींचा है कि चीन इसमें भागीदार नहीं है। इस तरह यह घटनाक्रम इस पृथ्वी पर एक बार फिर से परमाणु हथियारों को इकट्ठा करने की नई होड़ शुरू होने के संकेत देने लगा है।

आने वाला दशक अमेरिका और रूस के अलावा अमेरिका व चीन, चीन व भारत, भारत-पाकिस्तान के अलावा खाड़ी के मुल्कों में भी हथियारों की होड़ देखेगा और इससे भारत पर भी सैन्य और सामरिक दबाव बढ़ेगा। दूसरी ओर अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिक बुलाने का फैसला करके संकेत दिया है कि वह एशिया में अपने सैनिकों के पांव और नहीं पडऩे देगा। सवाल उठता है कि इस खालीपन को कौन भरेगा/ चीन और पाकिस्तान इसकी तैयारी में जुट गए हैं। अगले दशक में इस तरह पाकिस्तान और चीन की ओर से बना गठजोड़ भारत की सैन्य घेरेबंदी और मजबूत करके भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशियाई देशों से दूर कर सकता है। चीन ने पाकिस्तान के अलावा नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ जिस तरह के गहरे रिश्ते बनाए हैं, वे भारत को आगाह करते हैं कि अगला दशक उसके लिए चुनौती भरा साबित होगा। अमेरिका का अपनी मांद में वापस जाने का फैसला भारत को इसलिए खटकेगा क्योंकि पिछले दशकों से भारत अमेरिका के साथ अपना साझा सामरिक भविष्य देखने लगा था। इस स्थिति से बचने के लिए जरूरी होगा कि भारत सैन्य मामलों में अपनी ताकत खुद बनाए। इसमें रूस, अमेरिका और यूरोपीय देशों का सहयोग मिल ही रहा है।

सैन्य ताकत का विकास किसी देश पर वास्तविक आक्रमण के लिए नहीं बल्कि अपना प्रभाव दिखाने के लिए ही होता है, इसीलिए इस लक्ष्य से भारत को अपने सामरिक और आर्थिक हितों की रक्षा के लिए न केवल अपनी सेनाओं को मजबूती देनी होगी बल्कि अमेरिका, जापान जैसे देशों के साथ मालाबार जैसे साझा सैन्य अभ्यासों का सिलसिला और बढ़ाकर प्रतिद्वंद्वी देशों को अपनी एकजुट ताकत का संदेश देते रहना होगा। एशिया में भारत को एक ताकतवर देश के तौर पर उभरने से रोकने के लिए चीन की भरसक कोशिश चल रही है। चीन ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पहुंचने और 48 देशों के संगठन न्युक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनने से रोका। चीन की इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए जरूरी होगा कि भारत चीन को अपनी समर नीति से भारत के खिलाफ संयम बरतने को मजबूर करे। इसके लिए जरूरी होगा कि दुनिया के दूसरे ताकतवर देश भारत के साथ हमेशा खड़े दिखें। ऐसा तभी मुमकिन हो सकता है जब बाकी दुनिया भारत से अपनी जनता के लिए कुछ हासिल करने की उम्मीद करे। इसके लिए भारत में घरेलू शांति व सामाजिक स्थिरता का होना जरूरी होगा। चीन की आक्रामक विस्तारवादी आर्थिक व सैन्य नीतियों से उकता कर ही दुनिया के अग्रणी विकसित देश और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन का विकल्प तलाशने लगी हैं।

भारत यदि ऐसा विकल्प बन सका तो अगला दशक एशिया में भारत का ही दशक कहा जाएगा। लेकिन अब तक उनके पांव वियतनाम और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों की ओर ही पड़ते नजर आ रहे हैं। लेकिन ये देश सैन्य ताकत नहीं माने जाते। अमेरिका और इसके साथी देश भारत को चीन के एक सैन्य और आर्थिक विकल्प के तौर पर इस सदी की शुरुआत से ही देखते रहे हैं, इसलिए भारत के साथ सामरिक साझेदारी का विशेष रिश्ता बनाया है। इस रिश्ते के तहत दोनों देश द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्तर पर सैन्य और रक्षा संबधों की नींव डाल चुके हैं। इसी रणनीति के तहत भारत ने चीन के दावे वाले समुद्री इलाके में साझा सैन्य अभ्यासों का सिलसिला चलाकर अपने सैन्य संकल्प से चीन को अवगत कराया है। भारत ने अपनी परमाणु सैन्य ताकत के बल पर विकसित दुनिया के अलावा चीन को भी मजबूर किया कि वह भारत को गंभीरता से ले। दूसरे दशक में भारत ने अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे ताकतवर देशों के साथ मालाबार साझा सैन्य अभ्यासों का सिलसिला तेज करके चीन को आगाह किया है कि भारत एशिया में अकेला नहीं है।

बड़ी ताकतों के साथ साझा सैन्य सहयोग का रिश्ता स्थापित करने के पीछे उद्देश्य किसी देश के खिलाफ साझा सैन्य कार्रवाई करना नहीं बल्कि यही संदेश देना होता है कि वह अपने हितों को सुरक्षित रखने में सक्षम है। नए सामरिक गठजोड़ सैन्य अभ्यासों के जरिए समान विचार वाले देशों के बीच बेहतर तालमेल और सैन्यीकरण का यह सिलसिला आने वाले दशक में और तेजी पकड़ेगा। यदि यह कहा जाए कि पिछली सदी में शीतयुद्ध के दौरान सैनिक ताकत इकट्ठा करने की होड़ मुयत: अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बीच थी मगर आज की सदी के तीसरे दशक में यह होड़ कई और देशों के बीच होगी। नए दशक में कई देशों के बीच क्षेत्रीय व विश्व स्तर पर सैन्य गठजोड़, जिसे साझा सैन्य अभ्यासों का नाम दिया जा रहा है, और जोर पकड़ेगा।

रंजीत कुमार
(लेखक रक्षा विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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