आज से लगभग दो दशक पहले तक दुनिया के लगभग सभी मध्यम और निम्न आय के देश स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को अपव्यय मानते थे। साल 2001 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बनाए गए ‘कमीशन ऑन मैक्रो इकॉनॉमिक्स एंड हेल्थ’ ने इस बात के पुख्ता सुबूत दिए कि स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च व्यय नहीं बल्कि एक बेहतरीन निवेश है।
इसके बाद दुनिया के कई देशों ने स्वास्थ्य खर्च को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धताएं दिखानी शुरू कीं। 2002 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भारत ने वर्ष 2010 तक स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च, सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। भारत में स्वास्थ्य राज्यों का विषय है, इसलिए 2002 की नीति में प्रस्ताव था कि राज्य सरकारें भी 2010 तक स्वास्थ्य पर खर्च सालाना बजट 7 प्रतिशत तक करें। दुनिया भर में बाद के वर्षों में स्वास्थ्य पर सरकारी वित्त खर्च का महत्व और समझा गया।
2013 में विशेषज्ञों ने नए प्रमाण दिए कि स्वास्थ्य पर खर्च किया गया हर डॉलर या रुपया 9 से 20 गुना रिटर्न देता है। भारत में सरकारों ने 2002 से 2015 तक स्वास्थ्य पर कई नए कदम उठाए जैसे कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन। इस सबके बाबजूद 2015-16 तक देश में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च मात्र 1.0 से 1.18 प्रतिशत तक और राज्य सरकारों का खर्च 4.5 से मात्र 5 फीसदी तक ही पहुंचा। 2017 में नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में एक बार फिर 2025 तक स्वास्थ्य पर खर्च को सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत और राज्यों के सालाना बजट का 8 प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रस्ताव दिया।
कुछ सप्ताह पहले कई देशों के पहली तिमाही के आर्थिक वृद्धि के अनुमान जारी किए। महामारी के चलते दुनिया भर में अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है। भारत में पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में आर्थिक विकास दर (वर्ष पर वर्ष) में 24% गिरावट आई है। यह पिछले 24 वर्षों में किसी भी तिमाही के लिए सबसे अधिक गिरावट है। चीन को छोड़कर सभी देशों की अर्थव्यस्थाए गिरी हैं। 2014-15 में इबोला महामारी ने तीन पश्चिम अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्था को लगभग 10-12% तक सिकोड़ दिया था। महामारी के दौरान आर्थिक मंदी, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास के जुड़े हुए होने का एक और प्रमाण है। लोग मानव पूंजी हैं, जो स्वास्थ्य (और शिक्षा) पर निवेश को आर्थिक विकास का आधार बनाता है।
नोबेल पुरस्कार विजेता एंगस डीटन ने अपनी 2013 की पुस्तक ‘महान पलायन : स्वास्थ्य, धन और असमानता की उत्पत्ति’ में उन्नीसवीं शताब्दी के कोलेरा महामारी और बीसवीं शताब्दी के फ्लू महामारी का विश्लेषण किया है। उन्होंने तर्क दिया है कि कोलेरा, फ्लू महामारी तथा संचारी रोगों को अधिकांश यूरोपीय देशों ने आर्थिक विकास के लिए खतरा के रूप में देखा। इन देशों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने पर निवेश करना शुरू किया। पिछले दशकों में यूरोप में तेजी से बढ़ी जीवन प्रत्याशा और आर्थिक वृद्धि, दोनों ही मजबूत स्वस्थ्य सेवाएं और स्वस्थ जनमानस के होने से हुई है।
कोविड-19 अभी जारी है और महामारी को रोकना तथा अर्थव्यवस्था को पटरी लाना, दोनों समय की जरूरत है। लेकिन ऐसा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना होगा और इन पर सरकारी निवेश बढ़ाना होगा। कुछ विचार चल रहे हैं। पंद्रहवें वित्त आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य के लिए उच्च-स्तरीय कमेटी गठित की थी। इस कमेटी ने भी स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात कही है।
पहली बार वित्त आयोग की रिपोर्ट में स्वास्थ्य के ऊपर एक सम्पूर्ण चैप्टर होगा। लेकिन पहले भी प्रस्ताव रखे गए है, लेकिन अमल नहीं हुआ है। महामारी द्वारा उत्पन्न चुनौती को अवसर के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है, बशर्ते स्वास्थ्य सुधार के लिए रखे गए राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के प्रस्तावों को अमली जामा दिया जाए।
(लेखक डॉ चन्द्रकांत लहरिया नेशनल प्रोफेशनल ऑफिसर,डब्लूएचओ हैं, ये उनके निजी विचार हैं)