सुईं-डोरा

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एक बार की बात है। क्षेत्र में बड़ा अकाल पड़ा। एक ओर तो खाने को अन्न नहीं, दूसरी ओर हैजा जैसी बीमारी फैल गई। आदमी, जानवर सभी मर रहे थे। ऐसे अवसर पर जमीनदार साहब की ओर सबकी आंखें टिकीं थीं। वे चाहते तो अपना भंडार खोलकर भूखों को पेट भर अन्न दे सकते थे। बीमारों का इलाज करवा सकते थे। यह सब तो दूर, जमीनदार साहब ऐसे अवसर पर भी लगान की रट लगाए हुए थे।

मुंशी ने इस बार कह ही दिया, “साहब इस बार तो लगान माफ कर ही दीजिये और….” “और…..और क्या कर दूं? बताइये मुंशी जी…बताइये न, चुप क्यों हो गए?”

“और थोड़ा अन्न जनता में बंटवा दीजिये…”

“बहुत अच्छे! जिस जमीनदार के ऐसे मुंशी हों उसका तो शीघ्र ही सत्यानाश हो जाए। पुरखों की खून-पसीने से जमा की गई सम्पत्ति बढ़ाने से तो रहा, उसे लुटा और दूं।”

मुंशी जी डरकर चुप रह गए। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। जब संसार के आसरे व सहारे टूट जाते हैं तभी लोगों को प्रभु का स्मरण होता है। प्रभु की प्रार्थना आरम्भ हुई। लोगों ने बोलियां बोलीं, “हे प्रभु! हमारी रक्षा करो। हमें इस अकाल से बचा लो तो हम तुम्हें ये देंगे, वो देंगे,….मंदिर बनवा देंगे मूर्ति पर सोना चढ़वा देंगे।”

पर प्रभु को भला क्या लालच। वही तो संसार को सब कुछ देता है, उसे भला कोई क्या देगा। फिर भी प्रभु-कृपा से क्षेत्र में एक स्वामी जी आए। पहनने को केवल एक वस्त्र औऱ सामान के नाम पर एक सुईं-डोरा उनकी सम्पत्ति थी-वस्त्र कहीं तो फट जाए तो उसे सिलने के लिए।

उनका नाम था सम्पूर्णानन्द। कहते हैं वे एक बहुत धनी परिवार में पैदा हुए थे। बड़े होकर उन्होंने अपने गुरु के आदेश पर अपना सर्वस्व दान कर दिया और सेवा व्रत ले लिया। जगह-जगह लोगों की सेवा करना ही उनका धर्म था। अकाल का समाचार सुनकर वे इस इलाके में कुछ सेवा करने आए थे। सेवा तो करते पर खाने को तो कुछ चाहिए। इसलिए उनका क्षेत्र में आना लोगों को अच्छा नहीं लगा। जनता के पास तो पहले ही खाने को कुछ न था, स्वामी जी को कहां से खिलाएं।

स्वामी जी के आने की सूचना सेठानी जी के पास भी पहुंची। सेठानी लोगों के कष्टों व अपने पति के रवैये से दुःखी तो थी ही, उनकी महत्माओं के आदर-सत्कार की मनोकारमा भी पूरी नहीं हो पा रह थी। अवसर देखकर वे साहस कर ही बैठी। उन्होंने सेठ जी से कहा, “सुनिये….।”

“कहो।”

“मैंने आपसे कभी कुछ नहीं मांगा। मांगती भी क्या, आपने तो सभी कुछ मुझे दे रखा है। सुख, सम्पदा, औलाद। कोई कमी नहीं है।”

“तो क्या रह गया? जो कमी हो बताओ तुम्हारे लिए तो आसमान के तारे भी ले आऊँ।”

“नहीं मुझे वह कुछ नहीं चाहिये।”

“पहेलियां क्यों मुझा रही हो, बताओं, क्या चाहिये? इस पल बोलो, उस पल पाओ।”

‘सच?’

‘हां सच!?’

“तो स्वामी जी, जो हमारे क्षेत्र में आए हुए हैं, उन्हें एक समय का भोजन करवा दीजिये जनता तो खुद भूखी है, उन्हें क्या खिलाती होगी।”

“मैं स्वामी-वामी में विश्वास नहीं करता और ऐसे समय में इस स्वामी को यहां आने की क्या पड़ी थी। फिर भी तुम चाहो तो बुलवा कर खाना खिलवा दो। एक बार खाना खिलाने में कोई समस्या नहीं है।”

साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)

लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण
(अभी जारी है… आगे कल पढ़े)

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