अदालती कार्यवाही में पारदर्शिता को लेकर बहुत दिन से सवाल उठ रहे थे। देश की सर्वोच्च अदालत पिछले कुछ समय से इस प्रयास में दिख रही थी कि किसी तरह से बुनियादी पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए ताकि न्यायिक प्रक्रिया में आम लोगों का भरोसा बढ़े। इसी क्रम में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लाइव प्रसारण का फैसला किया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने यहां से शुरू करके देश भर की अदालतों को यह संदेश दिया कि वे इसे अपनाएं। अगर हर जगह इसे अपना लिया गया तो आम आदमी भी देख सकेंगे कि किसी मामले की सुनवाई अदालत में कैसे हुई, किसने क्या दलील दी और क्या सवाल-जवाब हुए।
उसी क्रम में सर्वोच्च अदालत ने बुधवार को एक और ऐतिहासिक फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने चीफ जस्टिस कार्यालय को लोक प्राधिकार यानी पब्लिक ऑथोरिटी मानते हुए उसे सूचना के अधिकार, आरटीआई कानून के दायरे में ला दिया।
एक तरफ जहां सरकारी कार्यालय और दूसरे प्राधिकार किसी तरह से अपने को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने के लिए प्रयास कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश के सर्वोच्च न्यायिक कार्यालय ने अपने को इसके दायरे में ला दिया है। यह सही है कि अभी सीमित रूप से ही चीफ जस्टिस का कार्यालय आरटीआई के दायरे में आया है और कई चीजों के बारे में सूचना देने पर अब भी रोक रहेगी।
फिर भी सीमित पारदर्शिता भी सुनिश्चित होती है तो यह बहुत बड़ी बात होगी। दूसरे, यह अभी शुरुआत है। अगर पारदर्शिता की नीति अपनाने से फायदा होता है तो इसका विस्तार भी होगा और जो चीजें आरटीआई के दायरे से बाहर रह गई हैं, उन्हें देर सबेर इसके दायरे में लाया जा सकेगा। सर्वोच्च अदालत के फैसले का दूसरे संस्थानों पर भी असर होगा और जो अभी आरटीआई के दायरे से बाहर हैं उनको इसके दायरे में लाने में सुविधा होगी।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चीफ जस्टिस के कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाते हुए कुछ निषेध भी किए हैं। अदालत ने कहा है कि इस कानून का इस्तेमाल अदालतों की निगरानी के लिए नहीं होना चाहिए। यह अदालत की बहुत वाजिब चिंता है। अगर सर्वोच्च अदालत की निगरानी होने लगे और उस आधार पर गैरजरूरी दबाव बनाया जाने लगे तो न्यायिक प्रक्रिया का बुनियादी ढांचा ही बिखर जाएगा।
सो, अदालत की चिंता वाजिब है पर अगर सर्वोच्च अदालत कुछ और चीजों में पारदर्शिता लाती तो बेहतर होता। जैसे अदालत वे कहा है कि सूचना के अधिकार कानून के तहत यह बताया जाएगा कि कॉलेजियम ने किन-किन नामों की सिफारिश की पर क्यों की यह नहीं बताया जाएगा।
इसी तरह से कोई नाम स्वीकार किया गया और कोई खारिज हो गया, इसका भी कारण नहीं बताया जा सकता है। क्योंकि आमतौर पर नामों की सिफारिश करने और स्वीकार या खारिज किए जाने का काम खुफिया ब्यूरो, आईबी की रिपोर्ट पर आधारित होती, जो पहले से ही आरटीआई कानून के दायरे से बाहर है। यानी जजों की नियुक्ति और तबादले के बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाएगी। इसी तरह बेंच बनाने और मुकदमों के सुनवाई के लिए आवंटन का काम भी मास्टर ऑफ रोस्टर के नाते चीफ जस्टिस के पास है पर उसके बारे में लोग ज्यादा नहीं जान पाएंगे।
असल में लोगों को अभी अदालतों पर भरोसा तो है पर वे समझ नहीं पाते हैं कि अदालतों में काम कैसे होता है और फैसले कैसे होते हैं। पारदर्शिता बढ़ने से उनकी समझ बढ़ेगी। तभी कहा जा सकता है कि यह न्यायिक सुधारों का ही एक हिस्सा है। जैसे पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने हिंदी में बात रखे जाने की मंजूरी दी। इस तरह की छोटी छोटी पहलों से न्यायिक प्रक्रिया में बड़ा बदलाव आएगा। यह भी कहा जा रहा है कि चीफ जस्टिस का कार्यालय और सुप्रीम कोर्ट दोनों अलग अलग नहीं हैं।
अगर चीफ जस्टिस का कार्यालय आरटीआई के दायरे में आ गया तो अपने आप पूरी सर्वोच्च अदालत सूचना के अधिकार के दायरे में आ जाएगी। ऐसा होने से सभी माननीय जजों और न्यायिक अधिकारियों की जवाबदेही बहुत बढ़ जाएगी। इससे आम आदमी की दखल अदालती कार्यवाही में बढ़ेगी और संभवतः इसी सोच की वजह से सुप्रीम कोर्ट की रजिस्टरी ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही रजिस्टरी की दलीलों को ठुकरा कर यह अहम फैसला सुनाया है। इसलिए भी इसका महत्व ज्यादा हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आप को आरटीआई के दायरे में लाकर बहुत बड़ा काम किया है। राष्ट्रीय सुरक्षा आदि को छोड़ कर अब देश का कोई भी कार्यालय इसके दायरे में आने से इनकार नहीं कर सकता है। सबसे पहले तो देश की राजनीतिक पार्टियों को इसके दायरे में में लाने की मुहिम शूरू होनी चाहिए। ध्यान रहे अभी तक राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे से बाहर हैं और इक्का दुक्का पार्टियों को छोड़ कर सब इससे दूर ही रहना चाहते हैं। पर अब उनके ऊपर भी दबाव बनेगा।
देश की सबसे अहम जांच एजेंसी सीबीआई भी इसके दायरे से बाहर है। ध्यान रहे सीबीआई के ऊपर हमेशा राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं। इसलिए उसे भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाना चाहिए। इन सबसे ऊपर सबसे अहम यह है कि जो संस्थान इसके दायरे में हैं उनकी जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए और उन्हें बाध्य किया जाना चाहिए कि वे किसी न किसी बहाने से सूचना रोकने की बजाय आसानी से लोगों को सूचना उपलब्ध कराएं। तभी इस कानून का असली मकसद पूरा होगा।
सुशांत कुमार
लेखक स्तभंकरा हैं, ये उनके निजी विचार हैं