कांग्रेस के परिपक्क पीढ़ी के नेता एवं केन्द्रीय मंत्री रहे ज्योतिरादित्य संधिया ने बुधवार को कमल का हाथ थाम लिया। भाजपा के लिए सिंधिया कितने महत्वपूर्ण एसेट होंगे, यह समय बताएगा लेकिन कांग्रेस के लिए यह बड़ी क्षति है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि कांग्रेस की तरफ से जिस तरह इस पूरे प्रकरण पर ठण्डे रूख का परिचय दिया गया, वो काफी हैरान करने वाला है। ऐसे समय में, जब पार्टी के भीतर कुछ ही ऐसे चेहरे हैं, जिनसे पार्टी के पुनरूद्धार की उम्मीद जताई जा सकती थी, उसमें से सिंधिया एक अहम चेहरा थे। मोदी के पिछले कार्यकाल में लोकसभा में राहुल गांधी के ठीक बगल में सिंधिया दिखा करते और कई ऐसे मौके आते जब पूर्व अध्यक्ष अपनी ही बातों में उलझ जाते तो उसे बड़ी खूबसूरती से सुलझाने का काम ज्योतिरादित्य ही किया करते थे।
महत्वपूर्ण विषयों पर पार्टी का पक्ष रखता और सरकार क घेरने का उनका कौशल ऐसा कि उनमें भी पीएम मटीरियल लोग देखने लगे थे। सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा और जितिन प्रसाद जैसे परिपक्व युवाओं में पार्टी को लेकर एक संभावना दिखती रही है। ऐसी ऊर्जावान चौकड़ी की एक कड़ी बुधवार को सिंधिया के रूप में कांग्रेस से विलग हो गई लेकिन हैरत यह कि राहुल गांधी के ट्वीट और उसमें धैर्य का संदेश के अलावा कुछ ऐसा नहीं रहा जो सिंधिया में पुनर्विचार की परिस्थिति तैयार करता। दिलचस्प यह भी कि ऐसे वक्त में पूर्व पार्टी अध्यक्ष दिल्ली के पंच सितारा होटल में किसी वजह से व्यस्त रहे। अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मिलने का वक्त नहीं दिया। अब ऐसी स्थिति में किसी के लिए भी अनिर्णय की स्थिति में रहना मुश्किल होता है। लेकिन तकरीबन दो दशक के बाद एक ऐसी पार्टी को छोडऩा कितना तकलीफदेह होता है, जिससे राजनीतिक सफर की शुरूआत हुई हो, उसका दर्द समझा जा सकता है।
दिल्ली भाजपा मुख्यालय में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में सदस्यता ग्रहण करने के दरमियान भी सिंधिया के भीतर का ऊहापोह चेहरे से साफ-साफ बयान हो रहा था। होता भी है, दशकों तक किसी पार्टी में रहना और उसकी विचारधारा को लेकर विरोधियों पर सवाल उठाना, बाद में परिस्थितियां बदले तो यूटर्न लेने के लिए तैयार होना, काफी चुनौतीपूर्ण होता है। अब आने वाले दिनों में ऐसे कटाक्षों से भी सामना करना होगा। मोदी सरकार की मौजूदा आर्थिक नीति और नागरिकता कानून के समर्थन में बदली भूमिका के हिसाब से तर्क समत बात रखनी होगी। मध्य प्रदेश की राजनीति में क्या होता है, यह राज्यपाल के लखनऊ से लौटने पर तय होगा। तब तक के लिए दावेप्रतिदावे की कहानी चलती रहेगी। एक-दूसरे पर हार्स टे्रडिंग के आरोप लगते रहेंगे। पर इस पूरे प्रकरण से इतना साफ हो गया कि राजनीति में रिश्तों का तब तक कोई मोल नहीं होता जब तक आप सत्ता से बाहर होते हैं। कमलनाथ के हाथ में मध्यप्रदेश की चाबी है और राज्य संगठन कमान भी उन्हीं के हाथ में है।